राजनीति का धर्मव्यूह v/s जातिव्यूह

राजनीति का धर्मव्यूह v/s जातिव्यूह

देश की सियासत में जाति और धर्म का खूब बोलबाला है। कोई राम के सहारे है तो कोई जिन्ना के। किसी को अब्बाजान पसंद हैं तो किसी को चचाजान। जातीय सम्मेलनों की भी बयार चल रही है। कहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जाति बताई जाती है, तो कभी राहुल गांधी के जनेऊ को दिखाकर उनकी जाति का पुख्ता प्रमाण दिया जाता है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण सार्वजनिक हैं। लेकिन जो नहीं दिख रहा वो है आमजनमानस के मुद्दे। प्रचारतंत्र जनतंत्र पर हावी है।
अब सवाल ये उठता है कि आखिर धर्म और जाति आधारित राजनीति में ऐसा क्या है कि हर दल इसी दलदल में जनता को रखना चाहता है?

धर्म और जाति भारतीय राजनीति के ब्रह्मास्त्र
दरअसल धर्म और जाति भारतीय राजनीति के ब्रह्मास्त्र हैं। सत्ता के महायुद्ध में कभी धर्म का पलड़ा भारी रहा है तो कभी जाति का। दोनों एक दूसरे के पूरक नहीं हैं, बल्कि एकदूसरे की काट हैं। सत्ता के लिए कभी धर्मव्यूह की रचना की जाती है तो कभी जातिव्यूह की। सत्ता के महारथी इन ब्रह्मास्त्रों को देश, काल, पात्र के अनुसार इस्तेमाल करते हैं। ये सत्ता का चरित्र है। ये सही है या गलत इस बहस में न पड़ते हुए इसे विशुद्ध राजनीतिक नजरिये से यहां समझेंगे।
यदि बात भारतीय जनता पार्टी की करें तो पार्टी वोटरों को ये बताने की पुरजोर कोशिश कर रही है कि हिन्दू धर्म खतरे में हैं। यानि कि हिंदू धर्म के खतरें में आ जाने से राष्ट्र भी खतरें में है। बीजेपी इस बात को लोगों के जेहन में नीचे तक हर हाल में उतार देना चाहती है। पूरा प्रचार तंत्र इसी काम में लगा दिया गया है। बीजेपी के रणनीतिकारों को बखूबी पता है कि यदि ये एजेंडा सेट हो गया तो बहुसंख्यक उनके पक्ष में वोट करेंगे। और यदि ऐसा नहीं हो पाया तो लोग बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, किसानी जैसे बुनियादी मुद्दों पर सवाल करेंगे। अपने हक और हुकूक की बात करेंगे। इन मुद्दों पर सवाल किसी भी सत्ताधारी पार्टी को अच्छे नहीं लगते हैं। लिहाजा इससे निकलने का एक ही रास्ता है कि वोटर के सामने उसके मुद्दे से बड़ा मुद्दा रख देना। फिलहाल भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकार इसमें सिद्धहस्त साबित हो रहे हैं और विपक्षी समझ नहीं पा रहे कि आखिर इस धर्मव्यूह को तोड़ा कैसे जाए। हालांकि हर व्यूह का एक तोड़ होता है और इसका भी है। इस तोड़ को जानने के लिए हमें इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे।
सत्ता पर काबिज होने के लिए रणनीति यानि कि साम, दाम, दण्ड, भेद का सहारा हमेशा से लिया जाता रहा है। इतिहास के पन्नें ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं। महाभारत से लेकर आधुनिक भारत तक जिस भी कालखण्ड को देखना चाहें ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे।

1909 का ‘मार्ले-मिंटो सुधार
आधुनिक भारत में चुनावी तिकणमबाजी की शुरूआत 1909 में पहली बार हुई। धर्म के आधार पर सत्ता पर मजबूत पकड़ बनाए रखने की एक खास रणनीति बनाई गई। इस रणनीति का नाम था 1909 का ‘मार्ले-मिंटो सुधार’ जिसे ‘भारत परिषद अधिनियम’ भी कहा जाता है। इस अधिनियम से चुनाव प्रणाली के सिद्धांत को भारत में पहली बार मान्यता मिली। गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद में पहली बार भारतीयों को प्रतिनिधित्व मिला। इस अधिनियम द्वारा मुसलमानों को प्रतिनिधित्व के मामले में विशेष रियायतें दी गई। मुसलमानों को केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में जनसंख्या के अनुपात में अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया तथा मुस्लिम मतदाताओं के लिये आय की योग्यता को भी हिंदुओं की तुलना में कम रखा गया।
दरअसल अंग्रेज सरकार ने मुस्लिम लीग और नरमपंथियों के तुष्टीकरण को राष्ट्रवाद के विरूद्ध मजबूत हथियार के तौर पर आजमाया। इतिहासकारों का मानना है कि अंग्रेज कुछ हद अपने मकसद में सफल भी हुए। हालांकि महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘मार्ले-मिंटो सुधारों ने हमारा सर्वनाश कर दिया’।

1932 का पूना पैक्ट
इसी तरह 24 सितंबर 1932 की एक और ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना जिसे पूना पैक्ट कहते हैं का जिक्र करना जरूरी है। इस समझौते ने भारतीय राजनीति में सत्ता के दरवाजे वंचित समाज के लिए खोल दिए। लेकिन हकीकत ये थी कि इस समझौते में हिन्दू धर्म की छतरी के नीचे दलितों को खींच कर इकट्ठा किया गया था। चूंकि ये एक तरह से सवर्ण जातियों का दलितों के साथ राजनीतिक समझौता था। इसलिए कालांतर में दलित मजह वोटबैंक बना दिए गए। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के साथ हुए पूना समझौते को दलित राजनीति का सूर्योदय मान सकते हैं। क्योंकि इस समझौते के बाद केंद्रीय और राज्य असेंबली में दलित पहुंचने लगे। निश्चिततौर पर इसका प्रभाव समाज पर पड़ता है। सामाजिक बदलाव होते हैं। और हुए भी। दलितों के हकों और मुद्दों पर आवाज उठने लगी। बदलाव आए।

1979 का मण्डल कमीशन
आजादी के बाद कई दशकों तक सत्ता के चरित्र में कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिलता है। धर्म और जाति का इस्तेमाल सत्ता पर काबिज रहने के लिए अलग-अलग तरह से किया जाता रहा। जबकि भारत के संविधान में जातीय भेदभाव को खत्म करने की जो भावना व्यक्त की गई है। लेकिन उस पर 1978 तक कोई खास पहल नहीं हुई।
1979 में जनता पार्टी की सरकार ने एक बड़ी ऐतिहासिक पहल की। सरकार ने मण्डल आयोग का गठन किया। सांसद बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल इसके अध्यक्ष बनाए गए। इस आयोग का काम सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान कराना था। मंडल कमीशन ने बड़ी मेहनत से अपना काम किया और सरकार को एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट में विभिन्न धर्मो और पंथो की 3743 जातियों जिनकी आबादी करीब 44% मानी गई को सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक मापदंडो के आधार पर सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ा घोषित करते हुए 27% आरक्षण देने की सिफारिश की गई।

1990 में मण्डल और कमण्डल 
हालांकि मण्डल कमीशन की सिफारिशें एक दशक तक लागू तो नहीं की गईं लेकिन इसका भारतीय राजनीति में और समाज में बड़ा असर देखने को मिला। पिछड़ों को इस बात अहसास हो चुका था कि धर्म को बाजू में रखकर जाति को तबज्जो देना होगा तभी अपने संवैधानिक हक हासिल किए जा सकते हैं। इसकी परिणित ये हुई कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने 13 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का फैसला किया। ये बहुत ही क्रांतिकारी और राजनीतिक तौर साहसिक फैसला था। इस फैसले के बाद बड़े सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए। देश में जाति आधारित राजनीति के अब तीन ध्रुव बन गए; सवर्ण, दलित और ओबीसी की राजनीति करने वाले। मण्डल कमीशन से उपजी इस नई राजनीति ने बीजेपी और कांग्रेस के अंदर बेचैनी पैदा कर दी थी। ऐसे में बीजेपी इस नई परिस्थिति से निपटने की ठान चुकी थी। बीजेपी ने धर्मव्यूह रचना की और मण्डल की राजनीति को पस्त करने के लिए कमण्डल रूपी ब्रम्हास्त्र का सहारा लिया। बीजेपी के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी श्रीराममंदिर निर्माण के संकल्प के साथ 25 सितंबर 1990 को गुजरात के प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर से अयोध्या के लिए रथयात्रा पर निकल पड़े। ये प्रयोग सफल साबित हुआ। इस प्रयोग ने बीजेपी को सत्ता के शिखर तक पहुंचा दिया। यानि की जातिव्यूह को तोड़ने में धर्मव्यूह कामयाब रहा।

कौन बेहतर: धर्मव्यूह या जातिव्यूह ?
इस बात को लेकर तो कोई आशंका बाकी नहीं रही कि भारतीय राजनीति में धर्म और जाति शास्वत सत्य की तरह हैं। यानि कि वोटर के पास विकल्प बहुत सीमित हैं। ऐसे में सवाल ये है कि आखिर वोटर क्या करे? धर्म आधारित राजनीति को अपनाए या जाति आधारित राजनीति को? किसमें वोटर का ज्यादा हित है? किसमें देशहित ज्यादा है? किसमें दोनों हैं?
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जाति आधारित राजनीति देश और समाज को तोड़ने का काम करती है। हालांकि ऐसा कोई प्रमाण तो नहीं मिलता है। जाति में यदि ऐसा गुणधर्म होता तो फिर पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, पंडित मदनमोहन मालवीय, डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी, पंडित अटलबिहारी वाजपेयी जैसे कितने ही आदरणीय राष्ट्रीय नेताओं के नाम लिए जा सकते हैं जो अपने नाम के आगे और पीछे जातिसूचक टाइटल को बड़े ही गौरव के साथ आजीवन लगाते रहे। यहां तक कि सेना में भी जातियों के नाम पर रेजीमेंट हैं। यानि की जाति महत्वपूर्ण फैक्टर है। निश्चिततौर पर यह तो कहा ही जा सकता है कि जाति न तो समाज को तोड़ती है और न ही देश को। हालांकि जातियों के बीच ऊँच-नीच का भेदभाव सामाजिक समरसता को जरूर बिगाड़ता है। और ये भेदभाव धर्म आधारित है। ऐसा पाया गया है कि लगभग हर धर्म में जातीय आधार पर ऊँच-नीच का भेदभाव है। धर्मों में सामाजिक असमानता बड़े पैमाने पर है। यहां तक कि आज के दौर में भी कुछ जातियों को अछूत माना जाता है और कुछ जातियों को जन्म आधारित सर्वोच्चता प्राप्त है। इतिहास में दर्ज घटनाएं बताती हैं कि जब-जब भेदभाव का शिकार जातियां अपना हक मांगने लगती हैं तब-तब ‘धर्म और राष्ट्र पर गंभीर खतरे’ का एजेंडा आगे कर दिया जाता है। जिससे सभी अपने हक और मुद्दों को भूल कर धर्म के रक्षार्थ एकजुट हो जाएं। इस धर्मव्यूह से सत्ता हासिल हो जाती है। जबकि जातिव्यूह से वंचित समाज को हक हासिल होते हैं और लोकतंत्र मजबूत होता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो धर्मव्यूह साम्प्रदायिकता की ओर ले जाता है और जातिव्यूह लोकतंत्र की मजबूती की ओर। चुनाव आपको करना है।
महेन्द्र सिंह, राजनीतिक विश्लेषक

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