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भारतीय सैनिकों ने तोपों का मुकाबला तलवार से करके जीता हायफा- जनरल वीके सिंह

भारतीय सैनिकों ने तोपों का मुकाबला तलवार से करके जीता हायफा- जनरल वीके सिंह

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नई दिल्ली, 23 सितम्बर 2018। भारत में ऐसे कम ही लोग होंगे जिन्हें हायफा के युद्ध के बारे में जानकारी होगी। फिलिस्तीन से सटे इज़राइल के हायफ़ा शहर की आजादी के संघर्ष में तीन भारतीय रेजीमेंटों जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स और हैदराबाद लांसर्स के अप्रतिम बलिदान को दुनिया याद करती है।

ब्रिटिश सेना के अंग के नाते लड़ते हुए इन भारतीय रेजीमेंटों ने अत्याचारी दुश्मन के चंगुल से हायफ़ा को स्वतंत्र कराया था। इस युद्ध में 900 से ज्यादा भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। उनकी गाथा सुनाता एक स्मारक, जिस पर इज़राइल सरकार और भारतीय सेना हर साल 23 सितम्बर को हायफ़ा दिवस के अवसर पर पुष्पांजलि अर्पित करके उन वीरों को नमन करती है।

इस साल इस विजय गाथा के सौ साल पूरे हो चुके हैं। इस मौके पर तीन मूर्ति हाइफा चौक, नई दिल्ली पर एक विशेष कार्यक्रम हुआ। इन वीरों को नमन किया गया। विदेश राज्यमंत्री जनरल (रिटायर्ड) वी के सिंह, भारत में इजरायली एम्बेसी की डिप्टी चीफ माया कडोश, राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जसवीर सिंह, आरएसएस के वरिष्ठ नेता रवि कुमार, इंडो-इजरायल फ्रेंडशिप फोरम के अध्यक्ष लेफ्टीनेंट जनरल (रिटायर्ड) आर एन सिंह समेत कई गणमान्य लोगों ने पुष्प अर्पित कर शहीदों को नमन किया। दिल्ली के तीनमूर्ति चौक का नाम इसी साल 14 जनवरी को तीनमूर्ति हायफा चौक रखा गया था जब इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहु और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस चौक का दौरा किया था और वीरों को श्रद्धांजलि दी थी।

जनरल वीके सिंह ने भारत की मजबूत एकता का उल्लेख करते हुए कहा कि ये देश हर धर्म का आश्रय स्थल रहा है। यहां सभी धर्मों के लोग मिलजुलकर रहते हैं। उन्होंने कहा कि ये एक ऐसा देश है जहां सबसे पुराना मंदिर, सबसे पुरानी मस्जिद, सबसे पुराना चर्च, और गुरुद्वारा शताब्दियों से हैं। जनरल सिंह ने कहा कि भारतीय सेना के इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जिनमें विपरीत परिस्थितियों में दुश्मन को नाकों चने चबवाकर हमारे जवानों ने किले फतह किए हैं.

सिर्फ भारत ही नहीं, विदेशी धरती पर भी हमारे जवानों ने अपने रक्त से शौर्य गाथाएं लिखकर इस धरती के दूध की आन बढ़ाई है और इसी कड़ी का एक हिस्सा था हायफा। हायफा की आजादी के लिए भारतीय योद्धाओं ने तोपों का मुकाबला तलवारों और बरछों से किया।

इजरायली एम्बेसी की डिप्टी चीफ माया कडोश ने कहा कि

नरेन्द्र मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इजरायल का दौरा किया और भारत-इजरायल संबंधों को और मजबूती दी। उन्होंने कहा कि जनवरी २०१८ में इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की भारत दौरे के दौरान तीन मूर्ति चौक का नाम बदलकर तीनमूर्ति हायफा चौक रखा गया जो हायफा की शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि है। माया कडोश ने कहा कि इन शहीदों की शौर्य गाथा इजरायल के स्कूलों में सिलेबस का हिस्सा है।

वरिष्ठ आरएसएस नेता रवि कुमार ने कहा कि भारत का सैनिक सेना में नौकरी करने के उद्देश्य से भर्ती नहीं होता, वह भर्ती होता है मातृभूमि पर अपना सब कुछ निछावर करने, अपने कर्तव्य पथ पर अडिग, अनुशासित रहते हुए देश की मिट्टी की रक्षा करने, इंसानियत के दुश्मनों को धूल चटाने. और यही वह भाव होता है जो हमारे बहादुर सैनिकों में सवा लाख से अकेले टकरा जाने का दमखम भरता है, और अंतत: विजयश्री दिलाता है.। और इसी भावना से हमारे बहादुर सिपाहियों हाइफा की मुक्ति के लिए भालों, बरछों और तलवारों से तोपों और बंदूकों का सामना किया औऱ २४ घंटे के अंदर हाइफा को आटोमन साम्राज्य के चंगुल से आजाद करा दिया।

वर्ष 1299 में स्थापित आटोमन साम्राज्य एक बहुत ही शक्तिशाली, बहुराज्यीय और बहुभाषी साम्राज्य था. इज़रायल भी इसके अधीन था. जहां काफी तादाद में यहुदी बसते थे. प्रथम विश्वयुद्ध के समय वर्ष 1918 में ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने मिल कर आटोमन की सेनाओं से साथ, जिसमें जर्मनी और हंगरी की सेनाएं शामिल थीं, इज़राइल को स्वतंत्र कराने के लिए युद्ध छेड़ दिया।

इस युद्ध में भारत की तीन कैवेलरी यूनिटों ने भाग लिया. आटोमन की सेनाओं के पास आधुनिकतम हथियार थे और उनकी सेनाएं भी अधिक तादाद में थीं. 23 सितम्बर 1918 को जोधपुर की 15वीं कैवेलरी ने, जिसका नेतृत्व मेजर दलपत सिंह कर रहे थे, अपने प्राणों की परवाह न करते हुए केवल तलवार, भाले और बर्छियों के साथ, आटोमन सैनिकों की भयंकर गोलाबारी के बीच घुसकर उसकी सेनाओं को परास्त किया. इस युद्ध में मेजर दलपत सिंह समेत 900 भारतीय सैनिक शहीद हुए. उनके सम्मान में और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इज़राइल और भारत में प्रतिवर्ष 23 सितम्बर को समारोह आयोजित किए जाते हैं.

हायफ़ा मुक्ति की गाथा कुछ यूं है.. बात प्रथम विश्व युद्घ (1914-18) की है. ऑटोमन यानी उस्मानी तुर्कों की सेनाओं ने हायफ़ा पर कब्जा कर लिया था. वे वहां यहूदियों पर अत्याचार कर रही थीं. उस युद्घ में करीब 1,50,000 भारतीय सैनिक आज के इजिप्ट और इज़राइल में 15वीं इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड के अंतर्गत अपना रणकौशल दिखा रहे थे. भालों और तलवारों से लैस भारतीय घुड़सवार सैनिक हायफ़ा में मौजूद तुर्की मोर्चों और माउंट कारमल पर तैनात तुर्की तोपखाने को तहस-नहस करने के लिए हमले पर भेजे गए. तुर्की सेना का वह मोर्चा बहुत मजबूत था, लेकिन भारतीय सैनिकों की घुड़सवार टुकड़ियों, जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स ने वह शौर्य दिखाया जिसका सशस्त्र सेनाओं के इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है. खासकर जोधपुर लांसर्स ने अपने सेनापति मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में हायफ़ा मुक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

23 सितम्बर 1918 को तुर्की सेना को खदेड़कर मेजर दलपत सिंह के बहादुर जवानों ने इज़राइल के हायफ़ा शहर को आजाद कराया. ठाकुर दलपत सिंह ने अपना बलिदान देकर एक सच्चे सैनिक की बहादुरी का असाधारण परिचय दिया था. उनकी उसी बहादुरी को सम्मानित करते हुए ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें मरणोपरांत मिलिटरी क्रास पदक अर्पित किया था. ब्रिटिश सेना के एक बड़े अधिकारी कर्नल हार्वी ने उनकी याद में कहा था कि “उनकी मृत्यु केवल जोधपुर वालों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत और पूरे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक बड़ी क्षति है.” मेजर ठाकुर दलपत सिंह के अलावा कैप्टन अनूप सिंह और सेकेंड लेफ्टिनेंट सगत सिंह को भी मिलिटरी क्रास पदक दिया गया था. इस युद्घ में कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा और दफादार जोर सिंह को उनकी बहादुरी के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट पदक दिए गए थे.
आज भी हायफ़ा, यरुशलम, रामलेह और ख्यात बीच सहित इज़राइल के सात शहरों में उनकी यादें बसी हैं. इतना ही नहीं, इस विजय गाथा को इजराइली बच्चे अपने स्कूली पाठ्यक्रम में पढ़ते हैं. इसके लिए हायफ़ा के उप महापौर हेदवा अलमोग की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है. तीन मूर्ति भवन के सामने सड़क के बीच लगीं तीन सैनिकों की मूर्तियां उन्हीं तीन घुड़सवार रेजीमेंटों की प्रतीक हैं जिन्होंने अपनी जान निछावर करके हायफ़ा को उस्मानी तुर्कों से मुक्त कराया था.

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