October 1, 2024

यूपी: ’किंगमेकर’ की भूमिका में कुर्मी

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उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव बेहद दिलचस्प मोड़ पर आ गए हैं। दो चरणों के मतदान के विश्लेषण के बाद ये साफतौर पर कहा जा सकता है कि मुकाबला बेहद कड़ा और सीधा है। लड़ाई सपा और बीजेपी के बीच आर-पार की है। बीजेपी को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। योगी सरकार के खिलाफ लोगों में गुस्सा साफ देखा जा रहा है। किसान नाराज हैं। युवा गुस्से में हैं। कारोबारी हताश और निराश हैं। सबसे अहम और गंभीर बात ये है कि बीजेपी जिस कैडर पर इतराती है वो मतदान वाले दिन उत्साह से बाहर नहीं निकल रहा है। ये बात बीजेपी के लिए परेशान करने वाली है। हालांकि इन सब विपरीत परिस्थियों के बावजूद बीजेपी पूरे जोश और दमखम के साथ चुनावी समर में न सिर्फ डटी है बल्कि विपक्षी पार्टियों को अपनी पिच पर आने के लिए मजबूर कर रही है। लेकिन क्या बीजेपी की ये ‘स्ट्रैटजी’ सत्ता की फिसलती कुर्सी को ‘फिक्स’ कर पाएगी?


जब किस्सा ‘कुर्सी’ का हो तो जातियों के वर्चस्व की बात स्वाभाविक है। सियासत का ये वो सच है जिसे नकारा नहीं जा सकता है। ‘कास्ट प्राइड’ वोटरों के दिल और दिमाग पर गहरे से पैठ बनाए हुए है। विधानसभा चुनाव में इस फैक्टर के मद्देनजर ही सारी पार्टियां अपनी रणनीति तैयार करती हैं। आधुनिकता के इस दौर में भले ही जाति आधारित राजनीति की आलोचना अकादमिक स्तर होती हो लेकिन जमीनी सच्चाई तो यही है कि जाति राजनीति का एक बहुत बड़ा फैक्टर जमाने से रही है और अभी भी है। सच्चाई ये भी है कि जो लोग अकादमिक बहस में जातिवादी राजनीति को लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं मानते हैं, उनमें अधिकांश घोर जातिवादी सोच के होते हैं। सैद्धांतिक तौर पर ये बात सच है कि लोकतंत्र के लिए जातिवादी राजनीति ठीक नहीं होती है।


उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस बार ‘ओबीसी’ एक बड़ा फैक्टर है। जहां एक ओर समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने बड़े पैमाने पर ओबीसी नेताओं को अपने साथ जोड़कर एक मजबूत ‘चक्रव्यूह’ की रचना की है, वहीं बीजेपी धर्म के नाम पर ओबीसी वोटरों को बांटकर ‘खेला’ करना चाह रही है। बीजेपी को पता है कि धर्म के नाम पर ही ओबीसी फैक्टर को ‘न्युट्रलाइज’ किया जा सकता है।

उत्तर प्रदेश में ओबीसी की करीब 160 जातियां हैं लेकिन इनमें से कुर्मी, यादव, लोध, लोधी, पाल, राजभर, मल्लाह, कुशवाहा, जाट और गुर्जर जैसी 10-12 जातियां सामाजिक और राजनीतिक तौर पर बहुत ही प्रभावशाली हैं। इनमें से अधिकांश जातियों के प्रभावशाली नेताओं का इस बार अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ राजनीतिक गठबंधन है। समाजवादी पार्टी का करीब 10 दलों के साथ गठबंधन हैं जिनमें प्रमुख हैं चौधरी जयंत सिंह का राष्ट्रीय लोक दल, ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा), संजय चौहान की जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट), केशव देव मौर्य का महान दल, कृष्णा पटेल का अपना दल (कमेरावादी)। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के संस्थापक ओमप्रकाश राजभर पूर्वांचल के प्रभावशाली नेता हैं, राजभर और कहार जाति में इनका दबदबा है। जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) के डॉ संजय सिंह चौहान नोनिया जाति के ऊपर काफी प्रभाव रखते हैं। जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) का इसका आधार पूर्वांचल के देवरिया, कुशीनगर, आजमगढ़, मऊ, बलिया, गाजीपुर और चंदौली जैसे जिलों में ठीकठाक है। केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की माँ कृष्णा पटेल का अपना दल (कमेरावादी) का कुर्मी जाति पर काफी प्रभाव है। हालांकि अनुप्रिया पटेल का एक अलग अपना दल है जिसका बीजेपी के साथ गठबंधन है। कुर्मी बिरादरी में अनुप्रिया की गहरी पैठ और प्रभाव है।

‘की’ पोजीशन में ‘के’ फैक्टर

अनुप्रिया पटेल का बीजेपी के साथ होना बीजेपी के लिए एक बड़ी राहत है। क्योंकि उत्तर प्रदेश की सबसे प्रभावशाली ओबीसी बिरादरी है कुर्मी। जनसंख्या की लिहाज से करीब 13 फीसदी आबादी है। जिसका एक बहुत बड़ा हिस्सा गांवों में रहता है। खेती मुख्य पेशा है। ज्यादातर बड़े और मध्यम जोत वाले किसान हैं। शहरों में भी ठीकठाक आबादी है। किसान होने के नाते अन्ना जानवरों, जंगली जानवरों, उर्वरकों, बीज, बिजली और डीजल के आसमान छूते दाम और उसके ऊपर फसलों के उचित दाम न मिलने से किसान योगी सरकार से बहुत ज्यादा खफा हैं। कुर्मी बिरादरी हालांकि पूरे प्रदेश में फैली है, लेकिन अवध और पूर्वांचल की करीब 60 सीटों पर निर्णायक भूमिका में है। उन्नाव, कानपुर, कानपुर देहात, जालौन, फतेहपुर, हरदोई, सीतापुर, लखनऊ, बाराबंकी, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, संत कबीर नगर, मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थ नगर, बस्ती, एटा, बरेली और लखीमपुर जिले प्रमुख हैं जहां कुर्मी वोटरों को कोई भी पार्टी नजरअंदाज नहीं कर सकती। ये ‘के’ फैक्टर हर बार की तरह इस बार भी ‘की’ पोजीशन में है। उत्तर प्रदेश में कुर्मी जाति कई उपनामों से जानी जाती है। जिनमें प्रमुख हैं- सिंह, कुमार, पटेल, गंगवार, सचान, उत्तम, निरंजन, मल्ल, सैंथवार और वर्मा।

मुलायम सिंह यादव जब राजनीति में सक्रिय थे तब बड़े कुर्मी नेता बेनीप्रसाद वर्मा की अगुवाई में कुर्मी समाजवादी पार्टी का वोट बैंक था। अखिलेश यादव भी अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए नरेश उत्तम को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर कुर्मी बिरादरी को साधने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि नरेश उत्तम की छवि बड़े कुर्मी नेता की नहीं बन पाई, लेकिन वो अखिलेश यादव के बहुत ही करीबी माने जाते हैं।

वहीं बीजेपी के पास उत्तर प्रदेश के प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान, प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री और सांसद संतोष गंगवार, माधवराव सिंधिया, प्रेमलता कटियार, विनय कटियार, पूर्वांचल में भाजपा के बड़े कुर्मी नेता ओमप्रकाश सिंह और कांग्रेस को छोड़कर हाल ही में बीजेपी में शामिल हुए आरपीएन सिंह और अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल हैं। बीजेपी ने कुर्मी बिरादरी को लुभाने के लिए गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया है। बीजेपी के साथ गठबंधन के सहयोगी जनता दल (युनाइटेड) के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का साथ भी है। अर्थात ये कहना गलत नहीं होगा कि बीजेपी ने ओबीसी की सबसे प्रभावशाली जाति जिसका सामाजिक और राजनीतिक रसूख दूसरी ओबीसी जातियों से कहीं अधिक है उसे साधने के लिए हर संभव कोशिश कर रही है। बीजेपी के रणनीतिकार एक बात बखूबी समझते हैं कि कुर्मी बिरादरी की महत्वाकांक्षा यूपी में अपनी जाति का मुख्यमंत्री बनाना है। ये ख्वाहिश समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी के साथ जाने से कभी पूरी नहीं होगी। कांग्रेस अभी न तीन में है न तेरह में। इसलिए ऑप्शन सिर्फ एक ही है। वो है बीजेपी, क्योंकि अनुप्रिया पटेल के अपना दल का संगठन अभी पूरे प्रदेश में नहीं है। इसलिए बीजेपी पूरी सोची समझी रणनीति के तहत कुर्मी बिरादरी पर दांव लगा रही है। चुनाव के बीच में आरपीएन सिंह को कांग्रेस से तोड़कर लाना इस स्ट्रैटजी का एक हिस्सा है। बीजेपी ने अपनी पार्टी के देश भर के सारे कुर्मी नेताओं को यूपी में झोंक रखा है।

यानि कि उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाबी कुर्मी वोटरों के पास है ये बात सभी दल बखूबी समझ रहे हैं। बीजेपी यदि इन्हें अपनी तरफ फिर से रख पाने में कामयाब रही तो एक बार फिर से यूपी में सत्ता में पार्टी काबिज हो सकता है। लेकिन बीजेपी के लिए ये इतना आसान नहीं होने वाला। क्योंकि कुर्मी बिरादरी में एक बात घर कर गई है कि बीजेपी सिर्फ चुनावी इस्तेमाल के लिए ओबीसी और कुर्मी बिरादरी के नेताओं का इस्तेमाल करती है, सत्ता में समुचित भागीदारी नहीं देती है। जगजाहिर है कि अनुप्रिया पटेल को जिस तरह कई साल तक मोदी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया और संतोष गंगवार को मंत्रिमण्डल से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। इसकी भारी नारजगी देखी जा सकती है। यहां तक कि नीतीश कुमार की पार्टी को भी केंद्रीय मंत्रिमण्डल में बहुत बाद में शामिल किया गया। योगी मंत्रिमण्डल में भी कुर्मी नेताओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। इसका खामियाजा बीजेपी को चुनाव में भुगतना पड़ सकता है। ऐसे में एक बात तो साफ है कि इस बार कुर्मी वोटर किंगमेकर की भूमिका में है। और पहले से ज्यादा मजबूत स्थिति में है।

लेखक – महेन्द्र सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक

 


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