महागठबंधन की हार के जिम्मेदार कौन-कौन?

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जेडीयू का नुकसान, बीजेपी को फायदा
बिहार में चौथी बार जेडीयू और बीजेपी गठबंधन की सरकार बन रही है. फर्क यह है कि 20 वर्षों के बाद राज्य में बीजेपी आज बड़े भाई की भूमिका में है. एनडीए ने 125 सीटें लाकर पूर्ण बहुमत प्राप्त किया. जबकि शुरुआती लड़ाई में आगे चल रहा महागठबंधन 110 पर ही रुक गया. सबसे ज्यादा वोट शेयर 23.1 प्रतिशत आरजेडी के खाते में गया, कांग्रेस के हिस्से 9.48% और लेफ्ट के हिस्से 1.48% वोट गया. एनडीए के लिए बीजेपी को 19.46% और जेडीयू को 15.38% वोट हासिल हुआ. इस तरह नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में चौथी बार बीजेपी जेडीयू की सरकार बन रही है. पिछले चुनाव की तुलना में बीजेपी को 21 सीटों का फायदा हुआ लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी को 28 सीट का भारी नुक़सान हुआ. बीजेपी को 74 और जेडीयू को 43 सीटें मिलीं . बिहार की जनता ने तेजस्वी के युवा चेहरे की जगह टेस्टेड और वेरिफायड नरेंद्र मोदी और नीतिश कुमार को तरजीह दी.

मैन ऑफ द चुनाव
तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. हालाँकि आरजेडी को पिछले चुनाव के मुकाबले 5 सीटों का घाटा रहा. अगर आरजेडी नेता तेजस्वी यादव जीतते तो यह कहा जा सकता था कि अकेले बन्दे ने बिना कोई हिन्दू मुस्लिम धर्म को बीच में लाए और बिना कोई आतंकवाद का डर दिखाए सिर्फ रोजगार को मुद्दा बनाकर जीत हासिल की. 31 साल के तेजस्वी ने पिता की गैरमौजूदगी में अकेले अपने दम पर नरेंद्र मोदी और नीतिश कुमार दोनों के ही पसीने छुड़ा दिए. यहां तक की चुनाव का एजेंडा बीजेपी और जेडीयू सेट नहीं कर पाई और उन्हें तेजस्वी की पिच पर बैटिंग करने को मजबूर होना पड़ा. लेकिन चंद सीटों से तेजस्वी चूक गए. तेजस्वी शायद तभी चूक गए थे जब उन्होंने कांग्रेस को लड़ने के लिए 70 सीटें दे दी थीं. वैसे तो महागठबंधन की हार के कई कारण रहे. जिसमें एक बड़ा कारण यह भी था कि कोरोना के कारण चुनाव की तैयारी देर से शुरू हुई. लेकिन सबसे बड़ी हार की वजह कांग्रेस रही.

उद्योग-धंधे और व्यापार चौपट हैं. इंस्टीट्यूशंस दिनों दिन दम तोड़ते जा रहे हैं. जनविरोधी नीतियां हावी हैं. किसान बिल के खिलाफ किसानों में रोष है. देश को आज 1942 जैसे असहयोग आंदोलन की ज़रूरत है. लेकिन जनता के साथ ही असहयोग नीति में लगी है गांधी नेहरू पटेल आज़ाद की 138 साल पुरानी पार्टी.

हाशिए पर क्यों है कांग्रेस?
कांग्रेस नेताओं ने न तो सही से अपनी पार्टी का आंकलन किया और न चुनाव में मेहनत की. संगठन के स्तर पर बिहार में कांग्रेस पहले से ही दम तोड़ चुकी है. वर्षों से उसने अपने को ज़िंदा करने की कोई मेहनत भी नहीं की है. कांग्रेस अपनी हैसियत से लगभग 40 सीट अधिक पर लड़ी. अगर यह सीटें आरजेडी के खाते में जुड़ी होती तो शायद आज आंकड़े कुछ और होते. सहयोगी आरजेडी और वाम दलों से कांग्रेस के प्रदर्शन की तुलना करें तो कुल उम्मीदवारों के मुकाबले सीटें जीतने की दर के मामले में पार्टी अपने सहयोगियों से काफी पीछे रह गई. आरजेडी कुल 144 सीटों पर चुनाव लड़ी और 75 सीटें जीती. वाम दल ने अपने खाते की कुल 29 सीटों में से 16 पर जीत दर्ज की. कांग्रेस 70 में से बमुश्किल 19 सीटों पर कामयाब हो पाई. पिछली बार कांग्रेस 41 सीट पर लड़ी थी और उसने 27 सीटें हासिल की थीं. कांग्रेस ने साल 2015 का विधानसभा चुनाव आरजेडी एवं जेडीयू के गठबंधन में लड़ा था. इससे पहले कांग्रेस ने 2010 का चुनाव अकेले लड़ा था और उसे भारी निराशा हाथ लगी थी. तब 243 सीटों की विधानसभा में उसको महज 2.9 फीसदी वोट और चार सीटें मिली थीं.

कांग्रेस की दलील
कांग्रेस के इस निराशाजनक प्रदर्शन के बारे में पूछे जाने पर पार्टी प्रवक्ता प्रोफेसर गौरव वल्लभ का मानना था कि, ”यह कहना उचित नहीं है कि कांग्रेस महागठबंधन की कमजोर कड़ी साबित हुई है. हमारे हिस्से में जो 70 सीटें आई थीं उनमें 67 सीटों पर पिछले लोकसभा चुनाव में एनडीए आगे था. बीजेपी और ओवैसी के गठबंधन जैसे कारण भी हैं जिनसे हमें नुकसान हुआ है.” कांग्रेस प्रवक्ता ने यह भी दावा किया कि, कम मतों के अंतर वाली कुछ सीटों पर कांग्रेस और सहयोगी दलों के उम्मीदवारों को हराया गया है और चुनाव आयोग को इस पर तत्काल उचित कदम उठाना चाहिए था.”

फिर संदेह के दायरे में चुनाव आयोग
यह सत्य है कि चुनाव आयोग की भूमिका संदेह के दायरे में रही. और लगभग 20 से 25 सीटें ऐसी रहीं जहां चुनाव आयोग सशक्त होता तो परिणाम कुछ और निकलते. फिर भी कांग्रेस की जो कमियां रही हैं उससे इनकार नहीं किया जा सकता है. आरजेडी और कांग्रेस ने कई सीटों पर हुई शिकायतों को उठाया भी लेकिन न तो आयोग ने कोई कार्रवाई करनी थी और न कोई कार्रवाई हुई. इस बार न इवीएम बल्कि अधिकारियों के रवैये पर भी सवाल उठे. आरजेडी और कांग्रेस का दावा है कि कम से कम 16 ऐसी सीटें रहीं जहां महागठबंधन उम्मीदवार को पहले जीता हुआ बताया गया लेकिन जब उम्मीदवार ने जीत का सर्टिफिकेट मांगा तो बाद में अधिकारी बहाने बनाने लगे कि आप हार गए हैं. इस तरह एनडीए के हारे उम्मीदवार को विजेता घोषित कर दिया गया ऊपर से आए दबाव के कारण. पराकाष्ठा तो तब हो गई जब 54 सीटों पर गिनती चल रही थी लेकिन बीजेपी नेताओं ने प्रेस कांफ्रेंस कर अपनी जीत की घोषणा कर दी और ट्वीटर के माध्यम से प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने जीत की बधाई और बिहार की जनता को धन्यवाद पेश कर दिया. यह ठीक वैसा ही था जब अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में हारने के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी जीत की झूठी घोषणा कर दी थी. लेकिन अमेरिका के सशक्त मीडिया ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का प्रसारण रोक दिया की झूठी खबरों का प्रसारण नहीं करेंगे. साथ ही अमेरिका में फेसबुक और ट्वीटर ने रिपब्लिकन की जीत की खबर को फेक घोषित कर दिया.

अब और क्या बचा है पार्टी में गर्त में जाने को? क्या कांग्रेस सारी लड़ाई सोशल मीडिया से लड़ेगी? ज़मीन से क्यों नहीं जुड़े हैं नेता? कहां है संगठन? कहां गया सेवा दल? क्या देश भर में सारे धरने प्रदर्शन, विरोध, जनता से जुड़े मुद्दे कांग्रेस के सिर्फ चार लोगों की ज़िम्मेदारी है? बाक़ी कांग्रेसी नेता क्या पार्टी में सिर्फ हलवा पूरी खाने बैठे हैं?

कांग्रेस के मुजरिम
हार की ज़िम्मेदारी तो तय करनी होगी. कौन तथाकथित बड़े नेता थे जिनके कहने से 70 सीटों पर लड़ने का फैसला हुआ? जब 30 सीट से ऊपर लड़ने की पार्टी की हैसियत नहीं थी तो क्यों बरबाद की गई 40 सीटें? किसके झूठ से शर्मिंदा हुआ महागठबंधन? साथ ही यह भी जांच होनी चाहिए कि कांग्रेस के जो भी तथाकथित बड़े नेता के श्रेणी में आते हैं उनके बूथ पर कांग्रेस को कितने वोट मिले ? मृत पड़े संगठन को खड़ा करने की जगह महागठबंधन से किन-किन नेताओं ने विश्वासघात किया? कांग्रेस का बिहार संगठन इतना भ्रष्ट और मौकापरस्त क्यों है? अच्छे लोग संगठन से बाहर क्यों हैं? युवाओं को जोड़े जाने की सख्त ज़रूरत है. सेवा दल नाम की चीज नहीं बची है. इन सबके लिए ज़िम्मेदार कौन? कौन-कौन हैं बिहार कांग्रेस के मुजरिम?

मुजरिम नम्बर-1
बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह हार के नम्बर-1 मुजरिम अविनाश पांडे हैं. टिकटों के बटवारे में दूसरी पार्टी से मिल कर उन्होंने कमज़ोर उमीदवार दिया. कांग्रेस के लिए यह बेहद शर्मनाक व अपमानजनक रहा. यहां तक कि कांग्रेस के लगभग दस नामों को आरजेडी ने बदलने की सलाह दी थी. आरजेडी का कहना था कि वो सभी नाम महागठबंधन पर बोझ की तरह साबित होंगे. क्योंकि जमीनी पकड़ नहीं है. इनको टिकट दिए जाने से गलत संदेश जाएगा और यह लोग विनिंग मैटेरियल नहीं हैं. लेकिन कांग्रेस ने अपने सहयोगी की बात नहीं मानी. नतीजा सबके सामने है.

मुजरिम नम्बर-2
बिहार में कांग्रेस के प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल बिहार चुनाव में हार के मुजरिम नम्बर 2 हैं. शक्ति सिंह गोहिल यात्रा पर यात्रा करते रहे लेकिन जमीनी हकीकतों से खुद भी अनभिज्ञ रहे और राहुल गांघी और कांग्रेस पार्टी को भ्रामक जानकारी देकर गुमराह करते रहे. जमीनी जानकारियों से गोहिल का कोई वास्ता नहीं था. उनके अल्पज्ञान ने महागठबंधन को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया और चुनाव में पार्टी की इमेज को ध्वस्त कर दिया.

मुजरिम नम्बर-3
बिहार में टिकटों के पुराने कारोबारी, पार्टी से गद्दारी में अग्रणी वरिष्ठ नेता सदानंद सिंह कांग्रेस और महागठबंधन के मुजरिम नम्बर 3 हैं। बेटे शुभानंद मुकेश को राजनीति में सेट करने में सदानंद लगे रहे। खुद तो 9 बार चुने गए हैं लेकिन संगठन को सिर्फ खोखला करने का काम किया है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बिहार में कांग्रेस शौकिया चुनाव लड़ रही थी? जमीनी हकीकत का पार्टी को कोई अंदाज़ा है? स्टार प्रचारक के नाम पर पार्टी के नेता हेलीकॉप्टर ले के घूमते रहे. वन टू वन कैंपेन की जगह कांग्रेस नेता ड्राइंग रूम में मलाई रबरी खाते रहे. चाय की चुस्कियों के साथ बड़ी बड़ी बातें करते रहे जबकि जनता से वो वर्षों से पूरी तरह कट चुके हैं.

तेजस्वी के करिशमा और M+Y समीकरण के भरोसे थी कांग्रेस
बिहार में कांग्रेस क्या सिर्फ तेजस्वी यादव की युवा शक्ति और लालू यादव के वर्षों पुराने M+Y समीकरण के भरोसे बैठी थी? जीत के बाद 10 दावेदार खड़े हो जाते डिप्टी सीएम बनने के लिए। जबकि कांग्रेस नोताओं की अपनी कोई हैसियत नहीं थी. दूसरे के भरोसे बैठी थी पार्टी. फिर क्यों 40 सीट खराब की कांग्रेस ने? दोषी को सजा कब देगी कांग्रेस? या फिर चुनाव दर चुनाव इसी तरह बेशर्मी से अपनी पोल खुलवाती रहेगी?

ड्राइंग रूम पॉलिटिक्स कब तक?
कांग्रेस नेता कब आएंगे सड़कों पर? देश में अनेकों ऐसे मुद्दे हैं जहां मजबूत विपक्ष की जरूरत है. देश की आर्थिक हालत काफी खराब है. देश में पहली बार मंदी (Recession) आई है। 2014 में देश पर कर्ज लगभग 54 लाख करोड़ था जो सिर्फ 6 साल की अवधि में बढ़ कर 102 लाख करोड़ के लगभग हो गया है. बेरोजगारी चरम पर है. आंकड़ों के अनुसार बेरोजगारी के मामले में पिछले 50 वर्षों में आज सबसे बुरी स्थिति है. उद्योग-धंधे और व्यापार चौपट हैं. इंस्टीट्यूशंस दिनों दिन दम तोड़ते जा रहे हैं. जनविरोधी नीतियां हावी हैं. किसान बिल के खिलाफ किसानों में रोष है. देश को आज 1942 जैसे असहयोग आंदोलन की ज़रूरत है. लेकिन जनता के साथ ही असहयोग नीति में लगी है गांधी नेहरू पटेल आज़ाद की 138 साल पुरानी पार्टी.

रिवैंप की जरूरत
कांग्रेस में बड़े पैमाने पर रिवैंप की जरूरत है. पार्टी को अपनी जागीर समझे बैठे कांग्रेसी नेता सरकारी पेंशन कब तक लेते रहेंगे? कब खत्म होगी कांग्रेस में लालफीताशाही? अब और क्या बचा है पार्टी में गर्त में जाने को? क्या कांग्रेस सारी लड़ाई सोशल मीडिया से लड़ेगी? ज़मीन से क्यों नहीं जुड़े हैं नेता? कहां है संगठन? कहां गया सेवा दल? क्या देश भर में सारे धरने प्रदर्शन, विरोध, जनता से जुड़े मुद्दे कांग्रेस के सिर्फ चार लोगों की ज़िम्मेदारी है? बाक़ी कांग्रेसी नेता क्या पार्टी में सिर्फ हलवा पूरी खाने बैठे हैं? 138 साल पुरानी कांग्रेस का संगठन कहां गया? क्यों आज सबसे दयनीय हालात में है कांग्रेस पार्टी? क्या कांग्रेस नेता यह भूल गए हैं कि राजनीति रोज दिन लड़ी जाने वाली जंग है, कोई पार्ट टाइम जॉब नहीं. कुम्भकरणी नींद में क्यों सोते रहते हैं नेता? कब जागेगी पार्टी? क्या कांग्रेस नेताओं का ज़मीर मर चुका है?
लेखक: शाहिद सईद, वरिष्ठ पत्रकार

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