Disney+ Hotstar: इस ‘ग्रहण’ में है ग़जब का आकर्षण
वेबसीरीज समीक्षा – वी राय, वरिष्ठ पत्रकार
शो रनर/ क्रिएटर : शैलेंद्र कुमार झा डॉयरेक्टर: रंजन चंदेल कलाकार: पवन मल्होत्रा, ज़ोया हुसैन, अंशुमान पुष्कर, वमिक़ा गब्बी
आपके अंदर अगर थोड़ा सा बिहार है. (झारखंड, पंजाब और दिल्ली भी हो सकता है)
इश्क की कोई मीठी सी याद है.
उसी दिल के किसी कोने में छुपा 1980 के दशक का कोई ‘संस्कारी रंगबाज’ है. जो येज़दी चलाता है. स्टाइल के साथ हाउसफुल फ़िल्म का टिकट झटक लेता है. लेकिन वो जिस लड़की को चुपके-चुपके चाहता है, उसकी आंखों में झांकने से डरता है.
या फिर आप न्यू इंडिया यानी 2020 के करीब की यंग एंड फोकस्ड प्रोफ़शनल हैं, जो एक पल, पूरे सिस्टम को बदल देना चाहती हैं और दूसरे ही पल उसी सिस्टम को छोड़कर निकल जाना चाहती हैं लेकिन फिर भी जा नहीं पाती. टिक जाती हैं क्योंकि आपको न हारना पसंद है और न ही भागना.
शख्सियत ऐसी है कि बाहर से प्रैक्टिकल नज़र आएं लेकिन अंदर इमोशन हैं. आंखें भींगती हैं. प्यार होता है.बस दुनियावी समझ तीन दशक पहले वाली पीढ़ी से थोड़ी ज़्यादा है.
या फिर आप दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हुए किसी ऐसे नेता को जानते हैं, जिसने अपने फ़ायदे के लिए आपको या आपके किसी अपने के जज्बात को चुपके से दांव पर लगा दिया हो.
या आप अच्छे कंटेंट के तलबगार हैं
तो मान लीजिए कि ‘ग्रहण’ का आकर्षण आपको भी बांध लेगा. आसानी से बाहर आने नहीं देगा. कुछ दिन तो बिल्कुल नहीं.
ये वेब सीरीज़ आपको छूकर नहीं गुजरेगी. ठहर जाएगी आपके अंदर. जिस दौर के जितने लम्हे आपने शिद्दत से जिए हैं, कम से कम उतने दिन तक तो ज़रूर.
मेरी नज़र में ये ओटीटी प्लेटफॉर्म पर हुआ ऐसा ‘चमत्कार’ है, जिसे अर्से तक मिसाल के तौर पर पेश किया जाएगा.
लेकिन क्यूं?
वजह कई हैं.
कहानी. कहने का क्राफ्ट. कलाकार. एक्टिंग. गाने. बैकग्राउंड म्यूज़िक. देर तक कानों में गूंजते रहने वाले डायलॉग्स. इंटेंसिटी. स्पीड. एडिटिंग. और सिनेमेटोग्राफ़ी.
ये सीरीज दो दौर की बात करती है. 1984 और 2016. दोनों के बीच 32 साल का फ़ासला है. इस बीच हिंदुस्तान ने लंबी दूरी तय कर ली है. पीली रोशनी देने वाले बल्ब की जगह एलईडी लाइट ने ले ली है. फिक्स्ड फ़ोन की जगह मोबाइल आ गए हैं. फिएट के 1980 मॉडल को एसयूवी ने ओवर टेक कर लिया है.
और ‘ग्रहण’ देखते हुए सीन दर सीन आप दोनों दौर के बीच झूलने का मज़ा लेते हैं. लेकिन कहीं कुछ भी खलता नहीं. कहानी इतनी खूबसूरती से आपको दोनों तरफ लाती ले जाती है कि जैसे किसी बड़े शहर के एक छोटे से फ्लैट में चहल कदमी करते हुए पता नहीं लगता कि कब ड्राइंग रूम से निकले और डाइनिंग रूम में दाखिल हो गए.
तस्वीरों के रंग बदलते हैं. कॉस्टूयम बदलते हैं. हेयर स्टाइल बदलती है. दीवारों पर लिखे इश्तिहार बदलते हैं. ट्रेन के डिब्बे और स्टेशन का रंग रूप बदलता है. लेकिन कहानी की कसावट और उसकी चाल नहीं बदलती.
अगर आप कसम खाकर तलाश करने ही नहीं बैठे हैं तो आपको आठ एपिसोड की इस वेब सीरीज़ शायद ही कोई कमी दिखेगी. कोई सीन बेवजह नहीं लगेगा. कोई डायलॉग या कोई एक्सप्रेशन बेमतलब नहीं दिखेगा.
साहस को सलाम
लेकिन,तमाम खूबियों पर भारी दिखता है सीरीज़ मेकर्स का साहस.
चौरासी, यानी 1984 वो साल है, जिसके ज़िक्र भर से तमाम लोगों के रौंगटे खड़े हो जाते हैं. हज़ारों जख्म हरे हो जाते हैं. उन्हें छूना किसी बड़े जोखिम से कम नहीं. भले ही इरादा सच सामने लाने का हो लेकिन इस कोशिश में हाथ झुलसने का डर होता है.
इसीलिए कोई इसे छूना नहीं चाहता. ऐसे में वेब सीरीज़ ‘ग्रहण’ सच सामने लाने का इरादा रखने वाले तमाम मेकर्स के लिए प्रेरणा बन सकती है.
कहानी
ये सीरीज सत्य व्यास के उपन्यास ‘चौरासी’ से प्रेरित है. कहानी ये है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के सिख विरोधी दंगों की आंच ने बिहार के बोकारो शहर को भी झुलसाया. इतिहास में छुपे राज़ पर से पर्दा धीरे धीरे उठता है और सच सामने आता है.
स्पेशल लव स्टोरी
2016 से 1984 की ओर जाने वाली इतिहास की पगडंडी नफरत की पथरीली राह जैसी मालूम होती है, लेकिन जब आप इस पर बढ़ते हैं तो प्यार के खूबसूरत फूल खिलते नज़र आते हैं.
मनु और ऋषि का प्यार. ऋषि के लिए ये लव एट फर्स्ट साइट था. अफसाना बोकारो स्टेशन पर आंखें मिलने के साथ शुरू हुआ और दंगे की अगली सुबह पुलिस जीप में बैठकर दूर जाती मनु के आंखों से ओझल हो जाने पर भी ख़त्म नहीं हुआ.
बीच में खट्टे, मीठे बेशुमार लम्हे. धीमी धीमी आंच पर पकती प्रेम कहानी. अनचाहा खिंचाव. मिलने के बहाने तलाशना. रूठना-मनाना. एक दूूसरे के साथ भाग जाने की ज़िद ठान लेना और फिर परिवार की खातिर रुक जाना.
इश्क का किस्सा एक अनचाहे मोड़ पर ठहर जाता है.
इस कहानी के कुछ और सिरे भी हैं. पिता-बेटी की कहानी साथ-साथ चलती है. दोस्ती का किस्सा भी है. पड़ोसियों के पंगे हैं. सीनियर जूनियर अधिकारियों के द्वंद्व हैं. ईमानदारी और सच्चाई को लेकर उनके सवाल हैं. कोई भी किरदार न पूरा स्याह है और न पूरा साफ़.
कलाकार
पवन राज मल्होत्रा की बेटी बनी ज़ोया हुसैन जब उन्हें एक दंगाई की तस्वीर दिखाती हैं और पूछती हैं, ये आप हैं. पवन मल्होत्रा की ख़ामोशी और उनका सीढ़ी उतरकर नीचे आना. इस तरह मानो कंधे पर सैंकड़ो किलो बोझ हो. आप भूलेंंगे नहीं. ज़ोया भी कमाल हैं. कहना मुश्किल है कि किरदार ने उन्हें बांधे रखा या डॉयरेक्टर ने. उनके पास लाउड होने के सौ मौके थे लेकिन उन्होंने किसी भी सीन में लकीर पार नहीं की. अंशुमन और वमिक़ा का तो कहना ही क्या?
रिसर्च और डायलॉग्स
ग्रहण में कहानी को जिस ईमानदारी से कहा गया है, वो कमाल है. दौर 1984 का है तो सब कुछ वैसा ही दिखता है जैसा अभी से 35 साल पहले था. दीवाली के बाद आने वाले छठ पर्व का सीन है तो किरदार को हाफ स्वेटर पहनाने का ध्यान रखा गया है.
वही जादू संवाद में है. मसलन हीरो ऋषि ट्रैफिक में फंसी एक कार के ड्राइवर से कहता है, “बराती में आए हो क्या, जिस उमर में कार मिला, उसी उमर में मार मिल गया होता तो बाबूजी की तरह पार्क करना भी सीख गए होते.” वो डॉयलॉग भी है, जैसा 9/11 के बाद प्रेसिडेंट जॉर्ज बुश ने कहा था, “या तो तुम साथ हो या ख़िलाफ़” लगभग हर संवाद यादगार बन पड़ा है
संदेश
आठ एपिसोड देखकर आप बेशुमार सबक सीख सकते हैं. इनमें से कुछ शायद आप जानते भी हों. मसलन, मुहब्बत आपको बेहतर इंसान बना देती. नफरत की आग आपका भी घर जला सकती है. अफवाह पानी में आग लगा सकती है और राजनीति में जो दिखता है, वो अक्सर वैसा नहीं होता.