December 17, 2024

इस्लाम व वहाबियत के बीच भारतीय मुसलमान

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भारत की राजधानी दुनिया भर के सूफ़ी विचारकों की गवाह बनी थी। स्वतंत्र भारत में यह पहली सूफ़ी कॉन्फ़्रेंस थी और इसे दुनिया ने काफ़ी सराहा था। दिल्ली में साल 2016 में 17 से 20 मार्च तक ‘वर्ल्ड सूफ़ी फ़ोरम’ के बैनर तले हुए कार्यक्रम के मुख्य आकर्षण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही थे। वे कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के तौर पर विज्ञान भवन में बोले। क़रीब 40 मिनट के उनके भाषण में इस्लाम और सूफ़ीवाद की उनकी समझ को पूरी दुनिया ने सराहा है। नरेन्द्र मोदी सूफ़ी फ़ोरम के माध्यम से इस्लामी जगत और भारत के मुस्लिम समाज को यह संदेश देने में कामयाब रहे कि इस्लाम का आतंकवाद से कोई ताल्लुक़ नहीं है और इस्लाम की सही अवधारणा सूफ़ीवाद में निहित है। इस दौरान भारत और क़रीब 20 अन्य देशों के 200 स्कॉलर के सूफ़ीवाद पर शोध पत्र और भाषणों को पूरी दुनिया ने शिद्दत से सुना था। 

सूफियों के लिए ईश्वर की सेवा का अर्थ मानवता की सेवा है: प्रधानमंत्री मोदी

वर्ल्ड सूफी फोरम में पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई किसी भी धर्म के खिलाफ नहीं है। मोदी की मौजूदगी में सम्मेलन में ‘भारत माता की जय’ के नारे लगे। मोदी ने कहा कि ‘वसुधैव कुटुंबकम में हमारा पूरा विश्वास है और विविधता प्रकृति की बुनियादी हक़ीक़त है। इसकी वजह से कोई वैमनस्य नहीं होना चाहिए।

अलक़ायदा के उभार और पतन, ख़तरनाक आतंकवादी गुट इस्लामिक स्टेट के उद्भव और भारत में हालिया ज़ाकिर नाइक विमर्श के बाद मुसलमानों में एक नई विचारधारा ‘वहाबियत’ उर्फ़  ‘वहाबीवाद’ उर्फ़ ‘वहाबिज़्म’ का बहुत ज़िक्र हो रहा

पीएम मोदी ने कहा कि सूफ़ीवाद का मतलब मानवता की सेवा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूफ़ीवाद को शांति की आवाज़ बताते हुए कहा था कि अल्लाह के 99 नामों में से कोई भी हिंसा का प्रतीक नहीं है। ‘वर्ल्ड सूफ़ी फ़ोरम’ को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, “सूफीवाद शांति, सह-अस्तित्व, करुणा, समानता और वैश्विक भाई चारे का आह्वान है।” मोदी ने कहा कि जब हम अल्लाह के 99 नामों के बारे में सोचते हैं तो उनमें से कोई भी बल और हिंसा से नहीं जुड़ता। अल्लाह के पहले दो नाम ‘रहमान’ और ‘रहीम’ हैं। सूफ़ीवाद विविधता एवं अनेकता का उत्सव है। प्रधानमंत्री ने कहा था कि “सूफियों के लिए ईश्वर की सेवा का अर्थ मानवता की सेवा है।”

इस मौक़े पर मोदी ने धर्म की आड़ में पूरी दुनिया में आतंक फैलाने वालों की कड़ी निन्दा की थी। उन्होंने कहा था कि, “जो लोग धर्म के नाम पर आतंक फैलाते हैं वे धर्म विरोधी हैं. आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई किसी धर्म के खिलाफ नहीं है और न ही यह हो सकती है।” सूफियों की सराहना करते हुए उन्होंने कहा था कि, “ऐसे समय में जब हिंसा की काली छाया बड़ी हो रही है आप लोग उम्मीद की किरण हैं।”

प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि जब युवा की हंसी बंदूकों के जरिये सड़कों पर खामोश कर दी जाती है, तब आप लोग वह आवाज हैं जो उसकी पीड़ा को भरते हैं।” उन्होंने पंजाबी सूफी कवि, मावतावादी और दार्शनिक बुल्ले शाह को भी याद किया था और कहा था कि भारतीय कविता में सूफीवाद का बड़ा योगदान है और भारतीय संगीत के विकास में उसके गहरे प्रभाव को समझा जा सकता है।

सूफी फोरम के बारे में प्रधानमंत्री ने कहा था कि, “यह वैसे लोगों का मंच है जो खुद शांति, सहिष्णुता और प्यार के संदेश के साथ जीते हैं. हम सभी ईश्वर की रचना हैं और यदि हम ईश्वर से प्रेम करते हैं तो हम हर हाल में उसकी सारी रचनाओं से भी प्रेम करते हैं।”

सूफ़ीवाद को बढ़ाने की क्यों है ज़रूरत ?

रिसर्च और स्टडीज़ के मुताबिक़ पिछले 35-40 साल में वहाबी आइडियोलॉजी पर 100 अरब डॉलर लगाया जा चुका है। अमेरिकी सेनेटर क्रिस मर्फी के मुताबिक़ पाकिस्तान के करीब 24,000 मदरसे बच्चों को जिहादी बनाने का काम कर रहे हैं। और इसकी आग हिन्दुस्तान तक भी पहुंचती रहती है।

टेरोरिस्ट, वहाबी ताकतें और देश के दुश्मन… जब-तब लोगों को गुमराह करते रहते हैं। कभी मस्जिदों से जेहाद का ऐलान किया जाता है, तो कभी कश्मीर में बच्चों को 100–100 पत्थर फेंकने के लिए पांच-पांच सौ रूपए दिए जाते हैं। लोगों का हुजूम नाकों और पोस्ट पर अटैक करता है। और आग में घी डालने का काम कई बार ग़ैरज़िम्मेदार मीडिया भी अक्सर करती है। उदाहरण के तौर पर देखें तो कुछ एसे अखबार भी देश में हैं जो कश्मीरी आतंकी वानी को यूथ आइकॉन बताकर पाकिस्तान का प्रोपेगंडाकर करने से बाज़ नहीं आए थे। एक टेरोरिस्ट के लिए कश्मीर टाइम्स समेत कुछ अख़बारों ने अपने एडिटोरियल पेज में लिखा था कि मौत की जांच होनी चाहिए ताकि पता चल सके कि यह इंकॉंटर फ़र्ज़ी तो नहीं था? सोश्ल मीडिया भी आज के दौर में बेहद ख़तरनाक टूल बनता जा रहा है। वानी ने भी लोगों को बंदूक उठाने और पुलिस वालों को मारने के लिए सोश्ल मीडिया पर काफ़ी उकसाने का काम किया था।

देश ने यह भी देखा की भटके नौजवान जो पहले अलगवावाद की बात कर रहे थे उन्होंने एक क़दम आगे बढ़ के इस्लामिक स्टेट से जुड़े कंटेंट तक को लाइक और शेयर करने का काम किया था। दरअसल, सोश्ल मीडिया पर चीज़े बेलगाम रहती हैं। चंद साल पहले इस्लामिक स्टेट के पर्चे अमेरिका ने पकड़े थे, जिसके मुताबिक उसे भारत में लड़ाई शुरू करनी थी। आईएसआईएस की धमक तीन साल पहले बांग्लादेश तक पहुंच चुकी थी। अलगाववादियों और वहाबी ताकतों की कड़वी कड़ीक़त आज खुल कर बताने की ज़रूरत है, जो लोगों को भटकाने का काम कर रहे हैं। जबकि उनके खुद का परिवार बाहरी मुल्कों में रहता है। उनके बच्चे अमेरिका, कनाडा, लंदन और ऑस्ट्रेलिया जैसे मुल्कों में तालीम हासिल करते हैं लेकिन वो खुद इस देश के नौजवानों को भटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। 

ज़ाकिर नायक और वहाबी ज़हर

बांग्लादेश की राजधानी ढाका के एक कैफ़े में आतंकवादी हमले के बाद शेख़ हसीना सरकार ने भारत से विवादास्पद तथाकथित इस्लामी विद्वान ज़ाकिर नाइक की शिकायत लगाई थी। बांग्लादेश का मानना था कि उसके भटके हुए युवाओं को ज़ाकिर नाइक से प्रेरणा मिली और उन्होंने इस आतंकवादी घटना को अंजाम दिया।

लम्बे समय से भारत में ज़ाकिर नाइक का विरोध कर रहे सूफ़ी और शिया समुदाय की शिकायतों पर भारत ने कभी इतना ध्यान नहीं दिया जितना बांग्लादेश की शिकायत पर दिया गया। एक लम्बी बहस और मीडिया रिपोर्टों में ज़ाकिर नाइक के भाषणों के वीडियो को खंगाला गया तो पाया कि वह ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी नहीं मानता, सुसाइड बॉम्बिंग को जायज़ ठहराता है और अफ़ग़ानिस्तान में बुद्ध की प्रतिमा को तोड़े जाने को सही बताता है।

ज़ाकिर नाइक के बहाने देश में एक बार फिर यह बहस तीव्र हुई है कि क्या यही इस्लाम का असली चेहरा है? इस्लाम के विरोधियों, दक्षिणपंथियों, इस्लामोफ़ोबिया के प्रचार में लगी संस्थाओं और इसी बहाने अपनी राजनीति चमकाने वालों ने बहस को तेज़ किया वहीं ज़ाकिर नाइक के समर्थकों ने उसे बचाने की विफल कोशिश की।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सूफ़ीवाद को शांति की आवाज़ बताते हुए कहा था कि अल्लाह के 99 नामों में से कोई भी हिंसा का प्रतीक नहीं है।

अब तक दुनिया में आतंकवादी घटनाओं के बहाने मुसलमानों पर चर्चा होती रही है लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवी ज़ाकिर नाइक से यह बहस इस्लाम पर आ गई है। यानी क्या ज़ाकिर नाइक जिसे इस्लाम कहता है अगर वही विचारधारा प्रमुख है तो क्या आश्चर्य है जो इस पर सवाल ना खड़े किए जाएँ और ज़ाकिर नाइक के ज़हरीले बोल को सुनकर ग़ैर मुस्लिम या निष्पक्ष समाज क्यों ना इस्लाम के बारे में पूर्वाग्रह पाले? ज़ाकिर नाइक का विरोध कर रहे लोगों की बात सुनने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि मुसलमानों में इस्लाम की सही व्याख्या को लेकर मतांतर कितना है?

मुख्य रूप से मुस्लिम समाज को शिया और सुन्नी कैम्प के तौर पर देखा जाता है। बाद में इन सम्प्रदायों में भी ब्रांच है। यह भी धारणा है कि दुनिया में जितने भी इस्लामी आतंकवादी गुट हैं वह सब सुन्नी हैं।

लेकिन अलक़ायदा के उभार और पतन, ख़तरनाक आतंकवादी गुट इस्लामिक स्टेट के उद्भव और भारत में हालिया ज़ाकिर नाइक विमर्श के बाद मुसलमानों में एक नई विचारधारा ‘वहाबियत’ उर्फ़  ‘वहाबीवाद’ उर्फ़ ‘वहाबिज़्म’ का बहुत ज़िक्र हो रहा है। शिया मानते हैं कि वैचारिक रूप से उनका समुदाय सुन्नी विचारधारा से बहुत दूर नहीं हैं, सुन्नी कहते हैं कि उनका शिया से कोई गंभीर विवाद नहीं है लेकिन यह दोनों समुदाय कहते हैं कि वहाबियत से हम सब को ख़तरा है।

जबकि आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त संगठनों के सरगना जैसे अबुबक्र अलबग़दादी, ऐमन अलज़वाहिरी से लेकर हाफ़िज़ सईद तक ख़ुद को सुन्नी बताते हैं। सुन्नी और शिया कहते हैं यही लोग वहाबी हैं। यही लोग ज़ाकिर नाइक को भी वहाबी कहते हैं। इस मौक़े पर यह बहस होना लाज़मी है कि वहाबियत आख़िर है क्या? जानकार बताते हैं कि सऊदी अरब में अट्ठारहवीं शताब्दी में जन्मा इब्न अब्दुल वहाब इस विचारधारा का जनक है और आज दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद में संलिप्त सभी आतंकवादी वैचारिक रूप से वहाबी हैं। सऊदी अरब के तानाशाह परिवार पर कई वर्षों से यह गंभीर आरोप लगते रहे हैं कि वह वहाबी विचारधारा के पोषक हैं और अपनी इस विचारधारा को मुसलमानों के बीच आम करने में उन्होंने पानी की तरह पैसा बहाया है।

वहाबी विचारधारा का पसमंज़र

वहाबी विचारधारा इसके संस्थापक इब्न अब्दुल वहाब के नाम पर पुकारी जाती है। शुरूआत में इब्न अब्दुल वहाब ने बताया कि मुसलमानों में इस्लाम के मूल सिद्धांत ‘तौहीद’ यानी एकेश्वरवाद में बहुत ख़ामियाँ पैदा हो गई हैं जिसे एक सुधार आंदोलन से ठीक किया जा सकता है।

ब्रिटिश एजेंसी एमआई 6 के एजेंट पर्सी कोक्स के मित्र इब्न अब्दुल वहाब को ब्रिटेन का पूरा समर्थन हासिल था। दरअसल ब्रिटेन उस्मानिया ख़िलाफ़त (पूर्व तुर्की सल्तनत) को तोड़ नहीं पा रहे थे। ब्रिटेन ने इब्न अब्दुल वहाब की विचाधारा को अरब के लुटेरे परिवार अलसऊद के साथ मिला दिया। मुसलमानों में बिखराव की वजह बने इब्न अब्दुल वहाब ने मुसलमानों पर ही कुफ़्र (एकेश्वरवाद के विरोधी) के फ़तवे लगाकर उनकी हत्याओं को जायज़ ठहराना शुरू कर दिया।

‘वाजिबुल क़त्ल’ यानी ‘हत्या की अनिवार्यता’ के सिद्धांत के बल पर इब्न अब्दुल वहाब ने अपने चेलों को नरसंहार का लाइसेंस दे दिया। ‘जो हमारे साथ नहीं है, उसे मरना होगा’ के फ़तवे की बदौलत अलसऊद गिरोह के लुटेरों ने उस्मानिया ख़िलाफ़त को ब्रिटिश हथियार से हरा दिया और उस्मानिया ख़िलाफत के टुकड़े होने के बाद अलसऊद गिरोह को हिजाज़, नज्द और रबीउल ख़ाली का इलाक़ा मिलाकर सल्तनत दे दी गई जिसे इन्होंने अपने परिवार के नाम पर सऊदी अरब कर दिया। सऊदी अरब ने वहाबियत को आधिकारिक धर्म घोषित किया और इब्न अब्दुल वहाब को इमाम माना।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद न्यू वर्ल्ड ऑर्डर में सोवियत संघ को अफ़ग़ानिस्तान से बेदख़ल करने में सऊदी अरब की मदद से भोले अफ़ग़ानियों पर वहाबियत का सफल प्रयोग किया गया। सोवियत संघ के विघटन और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इतरफ़ा वैश्विक ताक़त संयुक्त राज्य अमेरिका ने फ़ौरन अलसऊद परिवार और उनकी विचारधारा वहाबियत को प्रमोट किया।

पूरी दुनिया में अल्लाह का राज स्थापित करने और काफ़िरों को मारने के लाइसेंस वाले वहशियों ने स्वयं इस्लामी जगत की क्या हालत कर दी है यह सबके सामने है। तेल की लूट, हथियारों की बिक्री, हथियारों की टेस्टिंग और विरोधी देशों में आतंकवाद को प्रमोट करने में वहाबियत ने बहुत मदद की। इस्लामी आतंकवादियों यानी वहाबी आतंकवादियों के पास इब्न अब्दुल वहाब की 18 पुस्तकों का आधार होता है। इब्न अब्दुल वहाब की किताबों और सऊदी अरब के पैसों की मदद से गली गली इस्लाम के नाम पर वहाबी विचारधारा की तबलीग़ करने वालों ने कभी मुसलमानों की मूल समस्याओं जैसे ग़रीबी, अशिक्षा, रोज़गार और स्वास्थ्य को ठीक करने की तो कोई तरक़ीब नहीं बताई, हत्ता उन्हें वहाबी बनाकर छोड़ दिया। इस तबलीग़ के झाँसे में आने वाले हर पढ़े लिखे और अनपढ़ का चाहे रोज़गार और तालीम लक्ष्य ना हो, लेकिन वह मन में इस्लामी ख़िलाफ़त की स्थापना का सपना संजोए बैठा है।

यही विचार उसे केरल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र से ही नहीं, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से ही नहीं बल्कि दुनिया के 100 देशों से इस्लामिक स्टेट ज्वॉइन करने के लिए प्रेरित करता है। बिना रजिस्ट्रेशन और बेनामी खातों में हासिल सऊदी पेट्रोडॉलर से चलने वाले वहाबी आंदोलन ने सूफ़ी और अन्य सुन्नी मत के मानने वाले लाखों नौजवानों को गुमराह किया है।

कौन था इब्न अब्दुल वहाब

वर्तमान सऊदी अरब के उत्तरी प्रांत नज्द में साल 1703 में इस्लामी विद्वान अब्दुल वहाब के घर पर इसका जन्म हुआ। इस्लामी माहौल में पले बढ़े इब्न अब्दुल वहाब ने अपने पिता की सूफ़ी विचारधारा से इनकार करते हुए माना कि मुसलमान दरगाह और मन्नत मानने लगे हैं जो इस्लाम के मूलविचार तौहीद यानी एकेश्वरवाद के ख़िलाफ़ है। इस्लाम को ‘सलफ़’ यानी बुज़ुर्गों के मार्ग पर लाना होगा। इसलिए इसने अपनी विचारधारा को ‘सलफ़ी’ कहा। वहाबी स्वयं को सलफ़ी कहता है जबकि उससे विरोध रखने वाले उसे वहाबी पुकारते हैं।

इसके जीवनकाल में अरब में मशहूर लुटेरा गिरोह अलसऊद ब्रिटेन के साथ मिलकर उस्मानिया ख़िलाफ़त को समाप्त करने में लगा था। ब्रिटिशर ने अलसऊद को इब्न अब्दुल वहाब से मिलाकर उसके विचारधारा को स्थापित करने को कहा क्योंकि अलसऊद को तत्कालीन अरब की जनता ने स्वीकार नहीं किया था। मुसलमानों में बिखराव के अलावा ब्रिटेन को इब्न अब्दुल वहाब का अत्यधिक हिंसा का विचार भी रास आ रहा था। इब्न अब्दुल वहाब के 89 साल की उम्र में 1792 में निधन होने तक अलसऊद ने वर्तमान सऊदी अरब के कुछ हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया था।

भारत में वहाबी विचार का विरोध

दुनिया में वहाबी विचारधारा के विरोध में अरब के बाहर पहला फ़तवा बरेली के मशहूर इस्लामी विद्वान और चिंतक अहमद रज़ा ख़ाँ साहब ने दिया था। आज भी अरब से अधिक भारत में वहाबी विचारधारा का विरोध हो रहा है। ‘ऑपिनियन पोस्ट’ ने इस मुद्दे पर दो प्रमुख लोगों के विचार जानने की कोशिश की जो वहाबियत के विरुद्ध जागरुकता फैला रहे हैं।

युवाओं को बचाने का संकल्प- शुजात क़ादरी

भारत में मुसलमानों के सबसे बड़े छात्र संगठन मुस्लिम स्टूडेंट्रस ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इंडिया के महासचिव शुजात क़ादरी कहते हैं कि उनके संगठन में 30 साल की उम्र या उससे कम के 10 लाख सदस्य हैं।

‘कट्टरता से बचाव के मुद्दे पर साल भर हम कार्यक्रम करते हैं और वहाबी विचारधारा के दुष्परिणामों से लोगों को आगाह करते हैं। हम बताते हैं कि वहाबी विचारधारा तबलीग़ या मदरसों के रास्ते से ही नहीं बल्कि वज़ीफ़े, मदद और आंदोलन के रूप में प्रवेश करती है।’

शुजात साल भर देश भर में सेमिनार आयोजित करते हैं और युवाओं को रोज़गार, प्रतियोगिता, शिक्षा और मेरिट के आधार पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। जब हमने यह पूछा कि आपकी उम्र के युवा करियर में मशग़ूल हैं, आपने यह रास्ता क्यों चुना? इसके उत्तर में वह कहते हैं ‘मैं नहीं करूँगा तो कौन करेगा। देश और नौजवानों के भविष्य को बचाने के लिए अगर मेरे सपनों की क़ुर्बानी से काम चल सकता है तो यह क़ीमत बहुत कम है।’

उनके संगठन का दफ़्तर कश्मीर से कन्याकुमारी और मणिपुर से राजस्थान तक है। मात्र 30 साल के इस नौजवान को चुप रहना पसंद है लेकिन वहाबियत की बात आते ही वह मुखर हो जाते हैं। हमने पूछा वर्तमान हालात में मुसलमानों के सामने जो संकट है, उसका आप क्या हल मानते हैं? शुजात का जवाब है ‘आधुनिक शिक्षा और सूफ़ीवाद’।

उलेमा वहाबियत के विरोध में जुटें- मुफ़्ती अशफ़ाक़

तंज़ीम उलामा-ए-इस्लाम के संस्थापक अध्यक्ष और दिल्ली से सूफ़ी मुसलमानों का बड़ा संगठन चलाने वाले मुफ़्ती अशफ़ाक़ हुसैन क़ादरी ने जब 08 फ़रवरी 2016 को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में वहाबी विचारधारा के विरोध में सम्मेलन बुलाया था तो प्रशासन को यह उम्मीद नहीं थी कि इतने से स्टेडियम में 15 हज़ार लोग कैसे आ सकते हैं।

‘मुझे लगता है कि जिस ख़तरे से पूरी दुनिया को ख़तरा है, वह भारत में तीव्र है क्योंकि हमारी 22 करोड़ की ग़रीब मुस्लिम जनता उन्हें ईंधन के रूप में नज़र आती है।’ मुफ़्ती अशफ़ाक़ आगे कहते हैं ‘वहाबियत राजनीतिक आंदोलन है जिससे सरकार मज़बूती से निपट सकती है लेकिन उसकी ऐसी मंशा नहीं।’

हमने जब उनकी आशंका पर सवाल किया तो उन्होंने कहा ‘ऐसा इसलिए क्योंकि वक़्फ़ बोर्ड और अल्पसंख्यक कल्याणकारी योजनाओं में देश भर में हर राजनीतिक नियुक्ति में वहाबी को ही नियुक्त किया जाता है।

जब मुसलमानों के लिए विभाग में वहाबियों का संस्थानिकरण होगा और आप इसे समाप्त भी करना चाहेंगे, दोनों बातें एकसाथ कैसे संभव है।’ मुफ़्ती अशफ़ाक़ उलेमा को वहाबी विचारधारा के विरोध में जोड़ रहे हैं। देश भर की 300 दरगाहों के लोग उनके साथ आ चुके हैं और क़रीब 10 लाख सूफ़ियों का उन्हें समर्थन हासिल है।

लेखक-शाहिद सईद, वरिष्ठ पत्रकार


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