जवाहरलाल नेहरू और रायबरेली का किसान आंदोलन
आज देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की 131वीं जयंती है। वर्ष 1889 में आज ही के दिन जन्मे पंडित जवाहरलाल नेहरू को सार्वजनिक जीवन में लाने का श्रेय रायबरेली के किसान आंदोलन को ही है।
ऐसे जुड़ा नेहरू परिवार का रायबरेली से रिश्ता
बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में रायबरेली के नामी वकील और जमींदार मोतीलाल नेहरू के संपर्क में आ गए थे। क्योंकि उस समय मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद हाईकोर्ट के विख्यात वकील थे। मोतीलाल नेहरू 1917 में होमरूल लीग की संयुक्त प्रांत इकाई के अध्यक्ष बने। जवाहरलाल नेहरू इस लीग के संयुक्त मंत्री बनाए गए थे। इसी वर्ष रायबरेली नगर में भी होम रूल लीग की शाखा स्थापित हुई। नगर के होमरूल लीग के नेताओं का मोतीलाल नेहरू से संपर्क बना। 1919 में मोतीलाल नेहरू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। इस समय तक रायबरेली में कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। इस नाते भी मोतीलाल नेहरू का रायबरेली से संपर्क बढ़ता चला गया। रायबरेली के प्रमुख कांग्रेसियों को मोतीलाल नेहरू निजी तौर पर जानते थे। इसी दौर में जवाहरलाल नेहरू ने जब राजनीतिक सक्रियता बढ़ाई तो उनका साबका प्रतापगढ़ व रायबरेली के किसानों से भी हुआ। रायबरेली और प्रतापगढ़ में किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे बाबा रामचंद्र इलाहाबाद जाकर सैकड़ों किसानों के साथ जवाहरलाल नेहरू से मिले और किसान आंदोलन को ताकत देने का आग्रह किया था। उनके आग्रह पर 1920 में जवाहरलाल नेहरू प्रतापगढ़-रायबरेली आए थे। गांव में पैदल घूम कर उन्होंने किसानों की स्थिति व जमींदारों का जुल्म भी देखा-सुना था। किसान समस्याओं को नजदीक से देखने के कारण ही उनके अंदर संघर्षशील व्यक्तित्व का विकास हुआ। उन्होंने अनेक सभाओं को भी प्रतापगढ़-रायबरेली में संबोधित किया था। किसान सभाओं में तब किसान बाबा रामचंद्र के साथ महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के नारे भी लगाते थे।
नेहरू परिवार और रायबरेली के बीच रिश्ते का शताब्दी वर्ष
नेहरू परिवार और रायबरेली के बीच संबंधों का यह शताब्दी वर्ष है। रायबरेली के किसान आंदोलन के जरिए ही नेहरू परिवार का रायबरेली से सीधा नाता आज से 100 वर्ष पहले स्थापित हुआ था। फिरोज गांधी इंदिरा गांधी राजीव गांधी से होता हुआ यह रिश्ता आज भी गांधी नेहरू परिवार की बहू सोनिया गांधी कायम किए हुए हैं। गांधी परिवार के नए वारिस राहुल गांधी और प्रियंका गांधी भी इस रिश्ते को जीवंत बनाए रखने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। कोशिश इकतरफा नहीं है। रायबरेली भी नेहरू गांधी परिवार से अपना शताब्दी पुराना रिश्ता समय-समय पर प्रमाणित करती रहती है।
मुंशीगंज गोलीकांड का इतिहास
लगान बंदी को लेकर अवध के इस अंचल में भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ किसानों का आंदोलन बाबा रामचंद्र दास के नेतृत्व में शुरू हुआ था। आज से 100 साल पहले जनवरी 1921 की शुरुआत से ही रायबरेली में किसान आंदोलन उग्र हो उठा 4 जनवरी 1921 को डीह तथा रुस्तमपुर बाजार की घटना के बाद 5 जनवरी को चंदनिहा में किसान नेता पंडित अमोल शर्मा बाबा जानकी दास मुंशी कार्य का प्रसाद के नेतृत्व में 3000 से अधिक किसानों ने जमीदार की कोठी घेर ली थी। ब्रिटिश हुकूमत के अधिकारियों ने भीड़ को तितर-बितर कर 3 किसान नेताओं बाबा जानकी दास पंडित अमोल शर्मा व चंद्रपाल सिंह को गिरफ्तार कर लखनऊ जेल भेज दिया। 6 जनवरी को फुरसतगंज में किसान नेताओं पर गोली चलाई गई। तीनों किसान नेताओं को मारे जाने के शक में जिलेभर के किसान भड़क उठे और किसानों के जच्चे रायबरेली की ओर कूच करने लगे। हजारों किसान सई नदी के किनारे मुंशीगंज में रात में ही आकर डट गए। हथियारबंद ब्रिटिश फौज और पुलिस ने सई नदी के इस पार मोर्चा संभाल लिया।
7 जनवरी 1921 को सई नदी के किनारे हुए मुंशीगंज गोली कांड को स्वाधीनता के इतिहास में मिनी जलियांवाला बाग कांड भी कहा गया। ब्रिटिश फौज और पुलिस फोर्स ने निहत्थे किसानों पर गोलियां दागी थीं। इसमें सैकड़ों निहत्थे किसान मारे गए और हजारों घायल हुए थे लेकिन अंग्रेजी अफसरों ने किसानों के शव सई नदी में बहा दिए। शहीद किसानों का नाम आज तक भी इतिहास में ज्ञात नहीं है। 6 जनवरी 1921 को जनपद के प्रमुख कांग्रेसी नेता मार्तंड दत्त वैद्य ने मोतीलाल नेहरू को तार देखकर रायबरेली की गंभीर स्थिति से अवगत कराया था। उन्होंने पंडित मोतीलाल नेहरु से तुरंत रायबरेली पधारने का आग्रह किया। मोतीलाल नेहरू की अनुपस्थिति में यह था जवाहरलाल नेहरू ने प्राप्त किया। वह तत्काल रायबरेली 7 जनवरी को पंजाब मेल से पहुंच गए। रायबरेली रेलवे स्टेशन पर तीन दर्जन लोगों ने उन्हें रिसीव किया और डॉ अवंतिका प्रसाद के घर ले गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू और रायबरेली के बीच रिश्ते की नींव 7 जनवरी को ही पड़ी। अवंतिका प्रसाद के घर पर जमा लोगों को शांति का संदेश देकर पंडित नेहरू सई नदी की तरफ चल पड़े।
नेहरू ने आत्मकथा में मुंशीगंज गोलीकांड का किया है जिक्र
पंडित नेहरू ने अपनी आत्मकथा में मुंशीगंज गोलीकांड का विस्तार से जिक्र किया है। आत्मकथा में लिखा है-” सन 1921 की जनवरी की आलम की बात है। मैं नागपुर कांग्रेस से लौटा ही था कि मुझे रायबरेली से तार मिला कि जल्दी आओ, क्योंकि वहां उपद्रव की आशंका थी। दूसरे दिन मैं गया। मुझे मालूम हुआ कि कुछ दिन पूर्व कुछ प्रमुख किसान पकड़े गए थे और वहीं की जेल में रखे गए थे। किसानों की प्रतापगढ़ की सफलता और उस समय जो नीति उन्होंने अख्तियार की थी, वह याद थी। चुनांचे किसानों की एक बड़ी भीड़ रायबरेली जा पहुंची। मगर इस बार सरकार उन्हें ऐसा नहीं करना देना चाहती थी और इसलिए उसने अतिरिक्त पुलिस और फौज का प्रबंध कर रखा था। कस्बे के ठीक बाहर एक छोटी नदी के उस पार किसानों का मुख्य भाग रोक दिया गया। फिर भी दूसरी ओर से लोग लगातार चले आ रहे थे। स्टेशन पर आते ही मुझे इस स्थिति की खबर मिली और मैं फौरन ही नदी की तरफ गया। रास्ते में मुझे जिला मजिस्ट्रेट का जल्दी में लिखा है पुर्जा मिला कि मैं वापस लौट जाऊं। उसी की पीठ पर मैंने जवाब लिख दिया कि कानून की किस दफा में मुझे लौट जाने के लिए कहा गया है। जब तक मुझे इसका जवाब नहीं मिलेगा तब तक मैं अपना काम जारी रखना चाहता हूं। जैसे ही मैं नदी तक पहुंचा, दूसरे किनारे से गोलियों की आवाज सुनाई दी। मुझे पुल पर ही फौज वालों ने रोक दिया। मैं वहां इंतजार ही कर रहा था कि एकाएक कितने ही डरे और घबराए हुए किसानों ने मुझे आकर घेर लिया जो कि नदी के इस किनारे खेतों में छिपे हुए थे।
तब मैंने उसी जगह कोई 2000 किसानों की सभा करके उनके डर को दूर और उत्तेजना को कम करने की कोशिश की। कुछ ही कदम नाले के उस पार उनके भाइयों पर गोलियां बरसाना और चारों और फौजी फौज का दिखाई देना, यह उनके लिए एक असाधारण स्थिति थी मगर फिर भी सभा बहुत सफलता के साथ हुई। जिससे किसानों का डर कुछ कम हुआ। तब जिला मजिस्ट्रेट उस स्थान से लौटे जहां गोलियां चलाई जा रही थी और उनके अनुरोध पर मैं उनके साथ उनके घर गया। वहां उन्होंने किसी न किसी बहाने 2 घंटे तक मुझे रोके रखा जाहिर है कि उनका इरादा मुझे कुछ वक्त किसानों से और शहर के अपने मित्रों से दूर रखने का था। बाद में हमें पता चला कि गोलीकांड में बहुतेरे आदमी मारे गए थे। किसानों ने तितर-बितर होने या पीछे हटने से इंकार कर दिया था। मुझे यकीन है कि अगर मैं या हममे से कोई जिन पर भरोसा रखते थे, यदि वहां होते और उन्होंने उनसे कहा होता तो किसान जरूर वहां से हट गए होते।
लेखक- गौरव अवस्थी “आशीष”, रायबरेली/उन्नाव