कामगारों की फजीहत और जनप्रतिनिधियों की भूमिका
“हमारे राज्य में काम करने वाले सभी हमारे भाई हैं, भले आप हिन्दुस्तान के किसी भी कोने के रहने वाले हों, आप सभी हमारे अपने हो, बंधु हो, बेटे हो. आप सबकी जिम्मेदारी तेलंगना सरकार लेती है. आप की हर जरूरत को पूरा करना हमारा धर्म है. किसी भी चीज की कमी नहीं होने दूंगा, राशन, पानी या दवाई, हर चीज की जरूरत को पूरा करना हमारा फर्ज बनता है. आप लोगों ने हमारे प्रदेश की सेवा की है, आप राज्य के विकास के प्रतिनिधि है्ं, अपने घर को इस बात की सूचना दे दो और आराम से यहीं रहो. आप हमारे परिवार के सदस्य हो और बेफिक्र होकर यहां रहो. पैसे का इंतजाम करना मेरी जिम्मेदारी है, चाहे हजारों करोड़ खर्च हो, हम पीछे नहीं हटेंगे और जब तक जी चाहे यहां रह सकते हो”
ये शब्द हैं तेलंगना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव के जब वो एक संवाददाता सम्मेलन (रविवार, 29 मार्च, शाम 7 बजे, हैदराबाद) को संबोधित कर रहे थे. यह वास्तव में देश के कई मुख्यमंत्रियों के लिए एक सीख है, जिसने पिछले दिनों हैरान-परेशान कामगारों को मदद करने की जगह परेशानियों में धकेल कर खुद को जिम्मेदारी से मुक्त होने का नाटक किया.
हम बात कर रहे हैं देश में लॉक-आउट की घोषणा के बाद 26-27 मार्च की शाम में दिल्ली-एनसीआर-यूपी के बार्डर पर जुटे असंख्य दिहाड़ी मजदूरों की जो हर हाल में जान बचाकर अपने-अपने गांव लौटना चाहते थे.
ऐसा नहीं था कि यह भीड़ अचानक जुट गई हो. इसकी पृष्ठभूमि तो उसी दिन तैयार हो गई थी जिस रात प्रधानमंत्री मोदी ने नेशनल लॉक-आउट की घोषणा की. आखिर इस हकीकत से कौन इनकार कर सकता है कि दिल्ली-एनसीआर को संवारने में इन कामगारों की बड़ी भूमिका है. अब सवाल उठता है कि नेशनल लॉक आउट की घोषणा के बाद जब उनके काम-धंधे बंद हो जाएंगे तो रोजी-रोटी का संकट सामने होगा. ऐसी स्थिति में उन सबों से जुड़े संभावित संकट या भय का निदान प्रधानमंत्री की उस घोषणा में नहीं होना सबसे बड़ी कमी थी.
इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि कोरोना जैसी बीमारी का वैश्विक असर को देखते हुए मोदी जी ने चिकित्सकों की सलाह पर यह निर्णय लिया होगा क्योंकि किसी भी ठोस दवा के अभाव में Social Distancing का पालन करना ही एकमात्र व्यवहारिक उपाय संभव है. लेकिन लगे हाथ मोदी जी को अपने संबोधन में लॉक-आउट के बाद संभावित व्यवहारिक समस्याएं क्या हो सकती हैं और उससे कैसे निपटा जाएगा, जैसे मुद्दों को शामिल करना चाहिए था. दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ. दूसरी तरफ दिल्ली सरकार ने अपनी अदूरदर्शिता का नमूना पेश करते हुए इसे भारत के लिए इस सदी का सबसे बड़ा मानवीय त्रासदी बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा.
आखिर किस आधार पर दिल्ली शहर के खासकर उन इलाकों में प्रचार किया गया कि जो गांव लौटना चाहते हैं उनके लिए फ्री बस की सेवा दी जा रही है, जो जाना चाहते हैं वो जा सकते हैं. इसके साथ ही दबी जुबान यह प्रचार किया गया कि प्रधानमंत्री ने जो राहत की घोषणा की है, उसका लाभ सिर्फ उचित प्रमाण पत्र धारकों को ही मिल पाएगा. जाहिर है, दैनिक मजदूरी करके पेट पालने वाले इन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों ने इस स्थिति में घर लौट जाना ही उचित समझा. एक महत्वपूर्ण बात जो इस मौसम में संभावित होता है, वह है गेंहू की कटाई. अक्सर हर साल इस समय दिल्ली में काम करने वाले मजदूर गेंहु कटाई के वक्त गांव लौट आते हैं. लॉक-आउट की घोषणा के बाद जब यह तय हो गया कि यहां कोई काम-काज संभव नहीं है तो निठल्ले यहां बैठने से बेहतर होगा कि कथित निशुल्क बस सेवा का लाभ लेकर क्यों नहीं गांव लौट जाएं.
नतीजा हुआ कि लाखों की भीड़ दिल्ली-यूपी की बार्डर पर इकठ्ठा हो गई. शाम से यह भीड़ जुटनी शुरू हुई और रात गहराने के साथ ही स्थिति गंभीर होने लगी. न्यूज चैनल वालों के लिए तो बार्डर जैसे मक्का-मदीना ही बन गया है. सभी न्यूज चैनलों पर बहस शुरू हो गई. सबों ने इनकी परेशानी को मानवीय चासनी में परोसना शुरू कर दिया. मगर किसी ने कोई व्यवहारिक समाधान खोजने की जुर्रत नहीं की.
घर लौटने वाले इस भीड़ में अधिकांश लोग बिहार और यूपी से वास्ता रखते थे. ऐसे में दोनों प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों का सामने आना लाजिमी था. मगर दोनों इस मुद्दे को दो तरीकों से निपटाने में लगना उचित समझा. सक्रियता के मामले में पहल उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस घोषणा के साथ की कि इन प्रवासी कामगारों के लिए यूपी सरकार 2000 बसों का इंतजाम करेगी जो इनलोगों को घर तक छोड़ेगी. इस घोषणा का अमल होना उतना आसान नहीं था जबकि दूसरी ओर अपने परिवार के सदस्यों के साथ इन कामगारों की फौज ने बार्डर इलाके में डेरा डालना शुरू कर दिया था. कईयों ने प्रतीक्षा करने के बजाए पैदल ही घर की दूरी नापना बेहतर समझा और लगातार दो दिनों तक न्यूज चैनल वालों ने इसे मार्मिक तरीके से दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ा. बाद में यूपी सरकार ने बसों की व्यवस्था भी की और यह भी तय किया गया कि इन मजदूरों को स्वास्थ्य परीक्षण के बाद ही गांव में प्रवेश दिया जाएगा. इसकी जिम्मेदारी जिला प्रशासन को दी गई.
मगर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का पक्ष बड़ा ही दिलचस्प रहा. बतौर काबिल और वैज्ञानिक तर्कों को आधार बनाकर बेशर्मी के साथ उन्होंने बस से मजदूरों को ढ़ोने से इनकार कर दिया. पटना में बैठे-बैठे 100 करोड़ का रिलीफ तय किया और अपने कारिदों को ताकिद किया कि टेलीफोन के माध्यम से ही प्रदेश के प्रवासी बिहारी मजदूरों को राहत पहुंचा दिया जाए. जबकि हकीकत में इस काम के लिए दिल्ली का बिहार भवन नकारा साबित हुआ. यहां यह जान लेना दिलचस्प होगा कि शुरुआती दौर में बिहार भवन में चार अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए केवल 3 लैंडलाइन ही उपलब्ध था जो अक्सर व्यस्त ही मिला. जबकि जरूरत इस बात की है कि पटना में काम के नाम पर आंकड़ों की कालाबाजारी करने में व्यस्त इन अधिकारियों को दिल्ली के साथ-साथ उन प्रदेशों में भेजा जाना चाहिए जहां बिहारी कामगारों की संख्या अधिक है. ऐसा करने से बिहारी कामगारों में अपने प्रदेश आकाओं के प्रति भरोसा बढ़ता और इस बुरे वक्त में बिहार सरकार की साख बढ़ती. इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि फिलवक्त सही मायने में रिलीफ उनके घर तक पहुंचाए जाने की जरूरत है क्योंकि ऐसे प्रवासियों का घर आने से बेहतर होगा कि वो वहीं रहें, स्वस्थ्य रहें और इस टास्क को पूरा करने में संबंधित प्रदेश की सरकार के साथ बिहार सरकार की भागीदारी होती.
वैश्विक महामारी के इस वक्त राजनीति की दकियानुसी से बाहर निकल कर हर एक दूसरे का हाथ पकड़ कर साथ खड़़े होने की जरूरत है और शायद तभी यह जंग जीती जा सकती है.
लेखक – सुनील पांडेय, वरिष्ठ पत्रकार ( एमिटी शिक्षण संस्थान से जुड़े हैं )