December 18, 2024

राजद्रोह क़ानून और आलोचना का हक़

0
Spread the love

निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय। अर्थात निंदक को पास रखना चाहिए क्योंकि वह मुफ्त में ही हमारी कमियां बता रहता है। ऐसा कबीर कह गए हैं। हालांकि कबीर की ये बात सरकारों को कभी रास नहीं आई। सरकारें निंदकों को सबक सिखाने के हमेशा तत्पर रहती हैं। इसके लिए सरकारों का पसंदीदा हथियार राजद्रोह कानून है। 

अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून के बेजा इस्तेमाल पर सरकार को खरी-खोटी सुनाई है। मामला था जाने-माने पत्रकार विनोद दुआ का। सरकार की निंदा करने पर उनके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज़ कर दिया।

असहमति और आलोचना लोकतंत्र का गहना होता है। लोकतंत्र के स्वस्थ और मजबूत होने की निशानी होती है। राजद्रोह के मामलों की बढ़ती संख्या इस बात की द्योतक होती है कि सरकार का दृष्टिकोण दमनकारी है। सरकार असहमति और आलोचना की विवेचना करने के बजाय प्रतिक्रिया करती है। इन्हीं वजहों से वैश्विक स्तर पर भारत पिछड़ता जा रहा है।

अमेरिकी थिंक टैंक ‘फ्रीडम हाउस’ की रिपोर्ट में कहा है कि भारत में लोगों की स्वतंत्रता पहले से कुछ कम हुई है। भारत एक ‘स्वतंत्र’ देश से ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ देश में बदल गया है। ये बहुत बड़ा और चिंताजनक बदलाव है। दरअसल इस रिपोर्ट में ‘पॉलिटिकल फ्रीडम’ और ‘मानवाधिकार’ को लेकर कई देशों में रिसर्च की गई थी। रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि साल 2014 में भारत में सत्तापरिवर्तन के बाद नागरिकों की स्वतंत्रता में गिरावट आई है। ‘डेमोक्रेसी अंडर सीज’ नाम वाली इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत की स्थिति में जो तब्दीली आई है, वो वैश्विक बदलाव का ही एक हिस्सा है। रिपोर्ट में भारत को 100 में से 67 नंबर दिए गए हैं। जबकि पिछले साल भारत को 100 में से 71 नंबर मिले थे।

दरअसल राजद्रोह कानून को पूरी तरह से समझने के लिए हमें 17वीं शताब्दी में जाना होगा। थोड़ा इतिहास खंगालना होगा।

राजशाही और राजद्रोह

राजद्रोह कानून की शुरूआत 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड से हुई। वहां के सांसदों का मानना था कि सरकार के बारे में अच्छी राय ही बनी रहनी चाहिये क्योंकि बुरी राय सरकार और राजशाही के लिये हानिकारक हो सकती है। इस तर्क को आधार बनाकर अंग्रेजों ने 1870 में आईपीसी की धारा 124 A में राजद्रोह कानून को शामिल कर दिया।

मौजूदा वक्त में इस कानून में राजद्रोह के अंतर्गत कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना या उत्तेजना पैदा करने के प्रयत्न को शामिल किया जाता है। राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है और इसके साथ ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है। इस कानून के तहत आरोपी व्यक्ति को सरकारी नौकरी करने से रोका जा सकता है। आरोपी व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होगा, साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसे अदालत में पेश होना ज़रूरी है।

पराधीन भारत में अंग्रेजों ने इसे हथियार की तरह इस्तेमाल किया। स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ राजद्रोह कानून का खूब इस्तेमाल किया गया। स्वतंत्रता आंदोलन के एक बड़े नेता बाल गंगाधर तिलक पर इसी कानून के तहत दो बार मुकदमा चलाया गया। पहली बार 1897 में जब उनके एक भाषण से हिंसा फैलने का आरोप लगाया गया। दूसरी बार 1909 में जब उन्होंने अपने अखबार केसरी में सरकार विरोधी लेख लिखा। महात्मा गांधी को भी अग्रेजी सरकार ने नहीं बख्शा। उन पर भी यंग इंडिया में छपे उनके लेखों के लिये राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। सरकार चाहे अंग्रेजों की रही हो या स्वतंत्र भारत की हो, बोलने और लिखने वालों से बहुत डरती हैं।

स्वतंत्र भारत का राजद्रोह का पहला मुकदमा 1962 में केदारनाथ सिंह के खिलाफ किया गया। इस मामले में पहली बार देश में राजद्रोह के कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई और मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने देश और देश की सरकार के मध्य के अंतर को भी स्पष्ट किया। केदारनाथ सिंह फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे और उन पर बिहार सरकार की निंदा करने और क्रांति का आह्वान करने के लिए भाषण देने का आरोप लगाया गया था। इस मामले में अदालत ने स्पष्ट कहा था कि किसी भी परिस्थिति में सरकार की आलोचना करना राजद्रोह के तहत नहीं गिना जाएगा।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल “अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति, या कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी, या हिंसा के लिये उकसाने वाले कृत्यों” के लिये राजद्रोह का सीमित उपयोग किया जाना चाहिये।

इस प्रकार, शिक्षाविदों, वकीलों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और छात्रों के खिलाफ राजद्रोह का आरोप लगाना सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना है। लेकिन सरकारें मानती कहां हैं।

ऐसा ही एक मामला 2010 खूब चर्चा में रहा। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी जो कार्टून्स अगेंस्ट करप्शन के लिये जाने जाते हैं, को 2010 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। सरकार को उनके कार्टून्स से डर लगने लगा था। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं।

मौलिक अधिकार और राजद्रोह कानून

भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(2) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार सुनिश्चित करता है। हालांकि इसमें कुछ प्रतिबंध भी लगाए गए हैं। संविधान में जिन प्रतिबंधों का उल्लेख किया गया है वो हैं भारत की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखना, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता या अदालत की अवमानना, मानहानि के संबंध में या किसी अपराध के लिये उकसाना। इसमें कहीं भी सरकार की आलोचना करने पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया है। इसकी व्याख्या सुप्रीम कोर्ट भी कई बार कर चुका है। सरकारों को कई बार फटकार भी लगी, लेकिन इसका दुरुपयोग नहीं रुका। सरकारें अपने विरोधी की आवाज दबाने के लिए राजद्रोह कानून का इतना अधिक इस्तेमाल करती हैं कि औपनिवेशिक युग की याद आ जाती है।

जब संविधान लिखा जा रहा था तब संविधान सभा भी राजद्रोह को संविधान में शामिल करने के लिये सहमत नहीं थी। सदस्यों का तर्क था कि यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करेगा। उन्होंने तर्क दिया था कि लोगों के विरोध के वैध और संवैधानिक रूप से गारंटीकृत मौलिक अधिकार को दबाने के लिये राजद्रोह कानून को एक हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। उनकी आशंका पूर्णतया सही साबित हो रही है।

दुनियाभर में राजद्रोह कानून की बड़ी आलोचना होती है। इसे लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ माना जाता है। भारत की छवि को इससे बड़ी चोट पहुंचती है।

निश्चिततौर पर कहा जा सकता है कि अब वो समय आ गया है जब राजद्रोह कानून की भारत से विदाई कर दी जाए। बाहरी और आंतरिक खतरों से निपटने के लिये हमारे देश में पर्याप्त कानून हैं। इसके लिए राजद्रोह कानून को जारी रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। वैसे भी बहुतायत में इसका उपयोग भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने और लोकतंत्र का गला घोंटने के लिये ही किया जाता है।

लेखक- महेन्द्र सिंह, वरिष्ठ पत्रकार


Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *