यूपी:सत्ता का ‘की’ फैक्टर, कुर्मी वोट किधर जाएगा…
देश की राजनीति में जाति एक बड़ा फैक्टर है। ये अच्छा है या बुरा है ये बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन सच्चाई यही है कि सत्ता के लिए जाति की राजनीति सभी राजनीतिक दल करते हैं। खुलेआम करते हैं। धर्म के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। इसमें राजनीतिक दल किसी प्रकार का संकोच नहीं करते हैं। खुलकर खेला खेलते हैं। ये बहुत ही स्वाभाविक और आम हो चुका है।
उत्तर प्रदेश में इन दिनों जातियों को लुभाने का सियासी खेला चल रहा है। बड़े राजनीतिक दल जातीय आधार रखने वाले छोटे दलों के साथ गठबंधन करने को बेकरार हैं। खासतौर पर ओबीसी जातियों को अपने पाले में लाने की होड़ मची हुई है। दरअसल ऐसा होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि कुछ खास ओबीसी जातियों के पास ही सत्ता की चाबी है। ये जातियां किसी भी राजनीतिक दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की कूबत रखती हैं।
सत्ता की चाबी किसके हाथ में?
ऐसे में थोड़ा समझ लेते हैं कि देश की सत्ता की चाबी रखने वाले यूपी में सत्ता की चाबी किसके हाथ में है। आइए यूपी के जातीय समीकरण पर एक नजर डालते हैं। 2001 की ‘सामाजिक न्याय रिपोर्ट’ के मुताबिक यूपी की आबादी में करीब 54 फीसदी हिस्सेदारी ओबीसी जातियों की है। उत्तर प्रदेश पिछड़ा आयोग के मुताबिक यूपी में अब तक कुल 79 जातियां ओबीसी में शामिल हैं। 70 अन्य जातियों ने खुद को ओबीसी लिस्ट में शामिल करने के लिए आयोग के पास आवेदन किया है।
सेंटर फॉर इलेक्शन मैनेजमेंट एंड कम्युनिकेशन (सीईएमसी) के आंकड़ों के मुताबिक यूपी की आबादी में में करीब 12 फीसदी सवर्ण, 52 फीसदी ओबीसी और 20 फीसदी दलित जातियों की हिस्सेदारी है। साफ जाहिर है यूपी में सबसे बड़ा वोटबैंक ओबीसी है। ओबीसी जातियां भी तीन हिस्सों में बटीं हैं। कुर्मी, यादव और गैर कुर्मी-यादव जातियां। अर्थात कुर्मी और यादव ऐसी जातियां हैं जो सत्ता के समीकरण को बहुत हद तक बनाती और बिगाड़ती हैं। सीईएमसी के आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश की कुल आबादी का 13 फीसदी कुर्मी हैं और 11 फीसदी यादव हैं। यादवों के बारे में खुले तौर पर सभी जानते हैं कि वो किस पार्टी का वोटबैंक हैं। लेकिन कुर्मियों के बारे में अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल होता है।
कुर्मियों की घेरेबंदी
राजनीतिक दलों के लिए कुर्मी बिरादरी का वोट कितनी अहमियत रखता है इसका अंदाजा उनके द्वारा की जा रही घेरेबंदी से लागाया जा सकता है। सभी बड़े दलों ने कुर्मियों के बड़े नेताओं को मैदान में उतार दिया है।
एक ओर जहां बीजेपी के लिए पार्टी के कुर्मी चेहरा और प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह हैं, वहीं सपा के लिए प्रदेश अध्यक्ष और कुर्मी चेहरा नरेश उत्तम दिन- रात प्रदेश की खाक छान रहे हैं। बीजेपी के साथ सत्ता में भागीदार अपना दल की नेता और पटेल बिरादरी में खासा प्रभाव रखने वाली अनुप्रिया पटेल अपना वर्चस्व बनाए रखने की कवायद में लगी हैं। बीजेपी के साथ सत्ता में भागीदार और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू भी यूपी चुनाव में उतरने की तैयारी कर रही है। कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और गुजरात के प्रदेश अध्यक्ष हार्दिक पटेल को तैनात कर दिया है।
जाहिर है राजनीतिक दलों के चाणक्य जातियों को साधने के लिए तरह-तरह की रणनितियां बना रहे हैं। कोई जाति सम्मेलन कर रहा है तो कोई महासम्मेलन और रथयात्राएं निकाल रहा है। हर संभव तरीके से वोटरों को जाति के खांचे में फिट करने की कोशिश की जा रही है।
राजनीतिक दलों का छल
आखिर इस बार ऐसा क्या है कि इस जाति की अहमियत एकाएक बढ़ गई है। इसे समझने के लिए इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे।
ओबीसी जातियों में सबसे ज्यादा राजनीतिक चेतना वाली कुर्मी जाति कभी कांग्रेस का वोटबैंक हुआ करती थी। कई दशकों तक कांग्रेस को सत्ता पर काबिज रखा। लेकिन कांग्रेस ने इस बिरादरी के किसी नेता को स्थापित नहीं होने दिया। इस बिरादरी ने जब कांग्रेस का साथ छोड़ा तो पार्टी प्रदेश की सत्ता से बाहर हो गई। इसके बाद कुर्मी बिरादरी ने बारी-बारी से समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी का हाथ थामा और सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में मदद की। लेकिन इन सभी दलों के साथ एक बात कॉमन रही, वो ये कि प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद इस बिरादरी के नेता को कभी नहीं दिया। चाहे वो मुलायम सिंह यादव के दाहिना हाथ माने जाने वाले बेनीप्रसाद वर्मा रहे हों या बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष और 2017 विधानसभा चुनाव के सबसे बड़े रणनीतिकार स्वतंत्रदेव सिंह हों या रूहेलखंड में अपना दबदबा रखने वाले और बीजेपी के कुर्मी चेहरा संतोष गंगवार, पूर्वांचल के बड़े नेता ओमप्रकाश सिंह या फिर राम मंदिर आंदोलन की अगुवाई करने वाले पार्टी के कद्दावर नेता विनय कटियार। ये सभी कद्दावर नेता हैं और अपनी बिरादरी पर खासी पकड़ रखते हैं लेकिन इन्हें इनकी पार्टियों ने हमेशा दोएम दर्जे में ही रखा।
बीजेपी का चक्रव्यूह
2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी में बीजेपी ने जो चक्रव्यूह रचा उसने सपा और बसपा के जातीय समीकरण को गड़बड़ा दिया। भाजपा ने बसपा के गैर-जाटव दलित वोट बैंक और सपा के गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी की। 2014 में लोकसभा, 2017 में विधानसभा और 2019 में फिर से लोकसभा चुनाव बीजेपी ने इसी रणनीति के तहत फतह किए। बीजेपी की इस रणनीति की सफलता की एक बड़ी वजह कुर्मी वोटों का बीजेपी को एकमुश्त मिलना रहा। बीजेपी ने इसके लिए अपना दल की अनुप्रिया पटेल को गठबंधन में शामिल करके कुर्मी वोटरों के दिल में जगह बनाई। इसके अलावा कई बड़े कुर्मी नेताओं को तबज्जो देकर कुर्मी वोटरों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में कर लिया।
कुर्मी वोटरों में असंतोष
चुनावी विश्लेषण से ये बात साबित होती है कि सपा और भाजपा को इस किसान कौम ने एकमुश्त वोट दिए लेकिन इन दोनों पार्टियों ने उन्हें निराश किया। इसलिए इस बार इन दोनों पार्टियों की बेचैनी बढ़ गई है। सत्ताधारी बीजेपी ने न तो केंद्र और न ही प्रदेश की कैबिनेट में कुर्मी नेताओं को सम्मानजनक स्थान दिया। बल्कि संतोष गंगवार जैसे काबिल और अनुभवी मंत्री को बाहर का दरवाजा दिखा दिया गया। सहयोगी पार्टी अपना दल की अनुप्रिया पटेल को भी लम्बे इंतजार के बावजूद मोदी कैबिनेट में सम्मानजनक जगह नहीं मिली। योगी कैबिनेट में भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला। इससे इस बिरादरी में खासी नाराजगी देखी जा रही है।
कुर्मी वोटबैंक
सीईएमसी के आंकड़े के मुताबिक यूपी के 25 जिलों में कुर्मी वोट बैंक 10 से 15 फीसदी तक है। इनमें उन्नाव, फतेहपुर, सीतापुर, मीरजापुर, बरेली, जालौन, सोनभद्र, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, पीलीभीत, मिश्रिख, खीरी, मोहनलालगंज, लखनऊ, रायबरेली, अमेठी, कन्नौज, अकबरपुर, सिद्धार्थनगर और बस्ती जिले प्रमुख हैं। इसके अलावा कुर्मी वोटबैंक प्रदेश के हर जिले में एक या दो सीटों पर निर्णायक की भूमिका में मौजूद है। तमाम रणनीतिकार कुर्मी बिरादरी की संख्या के आकलन में गलती कर बैठते हैं क्योंकि इनके कुछ सरनेम ऐसे हैं जिनसे ये समझ पाना मुश्किल होता है कि वो लोग किस बिरादरी से हैं। मसलन कुर्मी बिरादरी में वर्मा, सिंह, कुमार सरनेम के लोग बड़ी तादात में हैं लेकिन ये भ्रम की स्थिति पैदा करते हैं। मौजूदा हालात में कुर्मी वोटर अपने राजनीतिक रसूख की लड़ाई लड़ रहा है। कुर्मी वोटरों के लिए राजनीतिक सम्मान हासिल करना सबसे प्रमुख मुद्दा है। इसके अलावा सरकार की आरक्षण नीति, जाति जनगणना और कृषि कानून जैसे मुद्दों पर खासी नाराजगी है। इसीलिए कोई भी दल इन्हें हल्के में नहीं ले रहा है। सभी ने अपने जातीय क्षत्रपों को मैदान में उतार दिया है। लेकिन सबसे बड़ा और अहम सवाल ये है कि क्या वोटबैंक को साधने के लिए इतना ही काफी है? कई राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि इस बार राजनीतिक दलों के लिए राहें इतनी आसान नहीं होंगी।
लेखक – महेन्द्र सिंह, राजनीतिक विश्लेषक