November 22, 2024

मृत्यु के बाद के कर्मकांड

0
Spread the love

जीवन का अंतिम संस्कार है मृत्यु ।

जतास्य हि ध्रुवो मृत्यु: जन्म मृत्यु ध्रुवस्च।

जन्म लेने वाले की मृत्यु सुनिश्चित है चाहे राजा हो या रंक।

           मृतक के शरीर की अंतिम क्रिया विभिन्न संप्रदायों, मजहबों में अलग अलग ढंग से की जाती है जिनका मुख्य संबंध सामाजिक रीति रिवाजों से अधिक है। कोई जलाए या दफनाए या और रीति अपनाए वह केवल मृतक शरीर की क्रिया है न कि उसको छोड़ने वाले जीव की। जो अनीश्वरवादी धर्म व दर्शन हैं वे मृत्यु को सत्य मान कर किसी आत्मा की कल्पना नहीं करते हैं। मृत्यु के पश्चात मृतक के परिवार को शांति और सद्भाव प्रदान कर कर्मकांड की इतिश्री कर लेते हैं। जबकि ईश्वरवादी जैसे हिन्दू , ईसाई मुस्लिम आदि कुछ और कर्मकांड करते हैं।

           हिन्दुओं और सनातनियों में कर्मकांडो की लंबी श्रृंखला है। मृतक को घर से ले जाने,  अर्थी सजाने,  चिता लगाने और उसके पश्चात मृतक की राख या पुष्प एकत्रित करने, नदियों में प्रवाहित करने तक ही नहीं अपितु दिन और तेरहवीं करने की लंबी परंपरा है। यहां तक कि अनेकों परिवार एक वर्ष बाद वर्षी भी करते हैं। ये परंपराएं धार्मिक कम सामाजिक ज्यादा हैं और इनमें समाज ने स्थानीय स्तर पर भी और अलग अलग जातिगत स्तर पर भी परिवर्तन किए हैं।

             यहां मृत्यु के समय दो पक्ष हैं एक मृतक का परिवार और बंधु बांधव तथा दूसरा पक्ष मृत व्यक्ति। मृत्यु के पश्चात मृतक के परिवार को सांत्वना देना, ढांढस देना और सहयोग देना मानवीय है और सामाजिक भी है। मृतक के परिवार को हुई क्षति को कम करने को सारे उपाय जो मृतक के परिवार पर ही बोझ न बन जाएं , जरूर करें। किए भी जाने चाहिए लेकिन मृत्यु भोज तथा श्राद्ध के नाम पर दान आदि की बात उचित नहीं ,इससे हम मृतक के परिवार को कष्ट ही पहुंचाते हैं। शोक सभा कर के विराम देना चाहिए। दिन, तेरहवीं,वर्षी आदि कर्मकांडो से हम मृतक के परिवार पर और बोझ डालते रहते हैं अगर वे गरीब और मध्यम वर्गीय हैं तब तो उनपर बोझ डालना अत्याचार और पाप है, अमानवीय है ।

             अब चर्चा करते हैं मृतक की दृष्टि से। मृतक का शरीर मिट्टी में मिल गया और अनीश्वरवादी के लिए तो मृतक के जीव या आत्मा के लिए कुछ करना ही नहीं क्योंकि वे उसे नहीं मानते। अब जो आत्मा परमात्मा को मानते हैं या जो मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म या पुनुरुत्थान (ईसाई, मुस्लिम आदि) को मानते हैं उनकी चर्चा कर लें।

          गीता आत्मा के लिए कहती है

 — नैनम् छिन्दन्ति शस्त्राणि ,नैनम् दहति पावक: ——– ।

  वेद और उपनिषद् आत्मा को अजर, अमर, अविनाशी कहते हैं। अहम् ब्रह्मास्मि, सोअहम्, तत् त्वम् असि की घोषणा भी वेद, उपनिषद जो हिन्दू के मूल धार्मिक ग्रंथ हैं, करते हैं। आत्मा परमात्मा एक हैं और आत्मा ब्रह्म स्वरूपा है यह भी है। इस स्थिति में मृतक के शरीर से निकलते ही शक्तिवान आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है। ब्रह्मलीन हो जाती है। फिर आत्मा की शांति की बात करना मृत्यु के पश्चात तो धर्मानुसार नहीं है। शरीर में रहते हुए इन्द्रियों और मन के कारण आत्मा अशांत हो सकती है परन्तु मृत्यु के बाद तो वह न भटकती है न अशांत है। वह तो ब्रह्मलीन हो गई ।

            यह कहना की मृतक की आत्मा को शांति मिले या यह कहना कि उसे प्रभु अपने चरणों में स्थान दें अनुचित और अधार्मिक है। यह तो आत्मा और परमात्मा का कदाचित अपमान है। उस सर्वशक्तिमान पर अविश्वास है। इसलिए सारे कर्मकांड और रीतिरिवाज जो भटकती हुई आत्मा और जीव की शांति के लिए किए जाते हैं वे भी त्रुटि पूर्ण हुए। धार्मिक तो नहीं हुए ।

                Rest in peace (RIP) की प्रथा मुस्लिम, ईसाई में है जब उस एक दिन सारे उठ कर खड़े होंगे,  लेकिन यहां तो आत्मा अजर अमर है और शरीर नश्वर। तब यहां RIP का कोई अर्थ नहीं।

            मैंने जो चर्चा की है वह सब ग्रंथों में है। इसमें मेरा व्यक्तिगत कुछ नहीं। आप को विचार करना है, मंथन करना है। आपका चिंतन , मनन के बाद जो निष्कर्ष हो उसको मानें। आप ही प्रकाश हैं, ब्रह्म हैं परमात्मा हैं, क्यों भटक रहे हैं। स्वयं निर्णय लेकर धर्म और समाज की रक्षा करें।

प्रियात्मन् आप श्रेष्ठतम् हैं।

आचार्य श्री होरी

7428411588, 7428411688


Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *