पुरुषार्थ क्या है? जानना क्यों जरूरी?
पुरुष और अर्थ से मिल कर बना पुरुषार्थ शब्द अत्यंत गूढ़ और गहन ज्ञान वाला है। अयिए मेरे साथ चिंतन के धरातल पर चलें । वैसे तो सांख्य नाम का एक भारतीय दर्शन है जिसमें पुरुष शब्द का प्रयोग ब्रह्म के रूप में मिलता है। वहां पुरुष का अर्थ प्रथक है ,उस पर चर्चा फिर कभी।
अभी पुरुषार्थ पर चर्चा करते हैं। यहां पुरुष से तात्पर्य नर से नहीं जिसे अंग्रेजी में man कहते हैं ।आप इसे मानव या मनुष्य के भाव व अर्थ में ले सकते हैं ।इस शब्द से स्त्री ,नारी यानी woman का भी भान होता है । ह्यूमन भी इसके निकट है। नर नारी दोनों हैं पुरुष में।
अब आप सरल भाषा में समझें ।मै पूछूं — पुरुष किस हेतु जन्मा है ? उसका उद्देश्य क्या है ? वह जगत में आया ही क्यों है ? मनुष्य का हेतु क्या है ?? जीवन ही किस लिए ? जीवन को जीना कैसे है ? मृत्यु के पश्चात मनुष्य का क्या ? लौकिक और पारलौकिक जीवन में मनुष्य क्या,क्यों,कैसे जिएं ?
कुछ धर्म,दर्शन मृत्यु के बाद स्वर्ग, नर्क, मोक्ष जिनके लिए विभिन्न भाषाओं में अलग अलग शब्द हैं मानते हैं तो वहीं अनेक दर्शन इनका खंडन करते हैं लेकिन वर्तमान जीवन को वे भी मानते हैं । मैं दोनों दृष्टियों से चर्चा और विश्लेषण करूंगा।
भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ का प्रयोग बार बार हुआ है और एक महत्वपूर्ण स्थान पुरुषार्थ को मिला है । पुरुषार्थ के चार भाग हैं ——-
1 – धर्म
2- अर्थ
3- काम
4- मोक्ष
मैं एक एक कर चारों की चर्चा करूंगा दो भागों में। पहले भाग में धर्म और अर्थ की चर्चा करते हैं। चार में ये दो यानी धर्म और अर्थ आपके जीवन का आधा भाग है । चार स्तंभ जीवन के धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष में आधे अर्थात धर्म और अर्थ कितने महत्वपूर्ण हैं यह आप समझ लें । 50% जीवन धर्म और अर्थ पर टिका है ।
पहले धर्म की चर्चा । आप यह भलीभांति जान लें,समझ लें कि यहां धर्म का अर्थ संप्रदाय,पंथ,सेक्ट या मजहब कदापि नहीं। भारतीय मनीषियों ने धर्म को व्यापक अर्थ में धार्यते इति धर्मः के अर्थ में ही लिया था।
धर्म को आप मानव से या जीव से जोड़ें तो मानव धर्म या जीव धर्म कह सकते हैं लेकिन उसके स्थान पर हिन्दू ,मुस्लिम, ईसाई,बौद्ध , सिक्ख ,जैन आदि आदि कुछ नहीं लिख सकते हैं न मान सकते हैं। जैसे आग का पानी का यहां तक कि हर वस्तु का ,पदार्थ का अपना धर्म होता है, अपना गुण होता है। जो मनुष्यो की दृष्टि से देखें तो धर्म वही जो हर मनुष्य में एक सा हो । साहित्य में उल्लिखित नौ रस जैसे करुण,श्रृंगार,हास्य,वीर,वीभत्स,भयानक,रौद्र,अद्भुत,शांत
और प्रकृति में मिलने वाले षट रस तीता,खट्टा,कसैला मीठा आदि आदि हर मनुष्य और जीव में विद्यमान हैं वे चाहे कोई भी हो हिन्दू,ईसाई,मुस्लिम,बौद्ध,जैन कुछ भी । क्रोध,ईर्ष्या,प्रेम,दुख,सुख आदि आदि गुण हाव भाव , विभाव सब में हैं। सबके खून एक हैं ।भूख प्यास एक समान है। तात्पर्य यह कि यहां धर्म का आशय मानव धर्म से तो है और किसी मनुष्य कृत पंथ संप्रदाय मजहब से नहीं।
आपका जीवन आपका हर कदम धर्मानुसार हो । विपरीत नहीं ।सद्गुणों और दुर्गुणों में भी गुणों का विभाजन हुआ है तो यह कह सकते हैं कि सद्गुण ही आपके जीवन आधार हों। धर्म प्रथम स्तंभ है इसलिए आपके बाकी तीन स्तंभों अर्थ,काम,मोक्ष को भी धर्मानुकूल होना होगा । जैसे अर्थोपार्जन या काम सुख भोग धर्मानुकूल हों। मानव धर्म के अनुकूल न कि आपके मजहब, संप्रदाय के अनुकूल । लूट का धन और सुख या भोग धर्मानुकूल नहीं हो तो वह पुरुषार्थ में नहीं होगा ।
दूसरा भाग पुरुषार्थ का अर्थ है जो स्पष्ट है अर्थ माने संपत्ति ,धन आदि। Wealth जीवन यापन के लिए अति आवश्यक है। यह पुरुषार्थ का 25% हिस्सा है। यह धर्म के बाद इसलिए रखा गया है कि अर्थ ,धर्म के अनुसार हो अधर्म का अर्थ पुरुषार्थ नहीं होगा। समाज में अनेकों घटनाएं हैं जब अधर्म के अर्थ के परिणाम अच्छे नहीं होते। कुछ लोग यहां अर्थ के लिए कहेंगे कि वह चाहे जैसे अर्जित हो धर्म अनुसार या विपरीत सब ठीक है। अर्थ ,संपत्ति तो हर तरह से ठीक है। यह कोई भी सोच सकता है । पुरुषार्थ में केवल अर्थ शब्द ही है । बस धर्म के बाद है इसलिए मनीषियों,विद्वानों ने उक्तानुसार अर्थ बताए हैं।
क्रमशः भाग 2 आगे किसी दिन। प्रिय आत्मन् उसमें काम और मोक्ष पर हृदय स्पर्शी चर्चा करूंगा ।
आचार्य श्री होरी
7428411588, 7428411688