कविता : प्रवेश-द्वार मंदिरों के चढ़ावे रुक गए, मस्जिदों का सदका भी बंद, चर्चों को भी चंदे नहीं मिल रहे, गुरुद्वारों के दान का भी वही हाल; हो न हो,कोरोना के बढ़ते संक्रमण का धर्मस्थलों के प्रवेशद्वार बंद कर दिए जाने से सीधा-सीधा और पक्का संबंध हो! ईश्वर,अल्लाह,गॉड,वाहेगुरु कुपित,क्रोधित होकर,मज़ा चाखा रहे हों! जब ओझा-गुणी,ढोंगी बाबा,भ्रामक ज्योतिषी, सभी धर्मों,सभी संप्रदायों के, खुले सांढ़ की तरह घूम रहे हैं, तो धर्मस्थलों के विश्वास को क्यों धूमिल करें? अनलॉक होंगे धर्मस्थल,शॉपिंग मॉल्स वगैरह, बंदी से रुके हुए हैं देश भर के आदान-प्रदान। आप की तरह ही,मुझे भी हास्यास्पद लगता है, प्रतिबंधित-छूट का सरकारी एलान, वो भी ऐसे समय में जब संक्रमण की गति उन दिनों से काफी तीब्र हो गयी है, जब काम की संभावना ख़त्म हो जाने से मजदूरों का रेला सड़कों पर निकल पड़ा था, कोरोना-योद्धाओं से पिट रहा था, रेल की पटरियों पर कट भी रहा था, जब धर्मस्थलों पर जमा धर्मांध पिट रहे थे, धर्मसम्मेलन में शामिल अपराधी(?) हिरासत में लिए जा रहे थे, फ़रार ढूंढ़े,दंडित किए जा रहे थे। पर न आप,न मैं,न तो और ही कोई अधिकृत है दिमाग चलाने के लिए; देखिये,सुनिए,और अच्छे बच्चे की तरह, निर्देशानुसार आत्मनिर्भरता हेतु, आज्ञा-पालन का धर्म निभाइये।... बातें समझ में नहीं आ रही हों तो, चौबीसों घंटे उपलब्ध समाचार चैनलों पर, टिड्डियों के हमलों,पाकिस्तानियों के उपद्रव, चीन की चमगादड़ों और लद्दाख पर बदनीयती, चीन और डब्ल्यू एच ओ से यू एस ए की नाराज़गी और वायरल खबरों की विशेषज्ञ-पड़ताल सुनते रहिये,या फिर धर्मस्थलों में जाकर,अनुपस्थिति के लिये क्षमा माँगने की तैयारी में जुट जाइये।
कविता : प्रलयंकर-साल जिस तरह बीत रहा कोरोना-काल, सफेद हो गए कितने सरों के बाल!
हिंदुस्तान का ही बताएँ अगर हाल, बारह करोड़ हुए बेरोज़गार,बेहाल!
पी एम साहब अपनी यायावरी टाल, जा सके केवल उड़ीसा और बंगाल!
पूरी दुनिया कैसी हो गयी है बेहाल! कितने ही लोग बन चुके हैं कंगाल!
समुद्र में तूफान,तो कई बार भूचाल, भ्रमणकारी टिड्डियों का भी धमाल!
आज भय का केवल बज रहा गाल, हथियार से अधिक कारगर हैं ढाल!
हर तरफ बिछा आपदाओं का जाल, निष्फल ताली-थाली,शंख-घड़ियाल!
काल के आगे गल न रही कोई दाल, दुनिया की दशा पर आता है मलाल!
चीन पर दुनिया भर के नेत्र हुए लाल, डब्ल्यू एच ओ पर भी उठे हैं सवाल!
अतिसूक्ष्म-विषाणु बना ऐसा जंजाल, बीस सौ बीस है बना प्रलयंकर-साल! अरुण कुमार पासवान, कवि